चेन्नई. तिरुवल्लूर में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा कि धर्म सर्वोत्कृष्ट मंगल है। धर्म का मर्म जानते हुए उसे आचरण में उतारना आवश्यक है। संसार सागर में फंसे हुए प्राणियों के लिए धर्म एक द्वीप रूपी सहारा है।
धर्म एक दीपक के समान है जो आत्मा के गुणों को प्रकाशित करता है। वस्तु का स्वभाव ही धर्म होता है।
मुनि ने धर्म की शरण को सच्ची शरण बताते हुए कहा कि जो स्वयं अस्थिर एवं अशरणभूत होते हैं वे कभी किसी को शरण नहीं दे सकते। मनुष्य की यह भ्रांति है कि दल-बल, देवी-देवता, माता-पिता उसकी रक्षा करेंगे।
लेकिन संकटकाल में अक्सर देखा जाता है कि कोई भी शरण नहीं देता जबकि धर्म डूबते हुए प्राणी को तिरा देता है। जो व्यक्ति धर्म का आलंबन लेता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यह अंतरचेतना को जाग्रत करता है और कर्मों की निर्जरा करता है।
उन्होंने कहा, धर्म आत्मा का सच्चा मित्र है। कर्म रूपी शत्रु को परास्त करने का एकमात्र शस्त्र धर्म ही है।