Sagevaani.com @किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरिजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरिश्वरजी ने अध्यात्म कल्पद्रुम की विवेचना करते हुए कहा सुख- दुःख जगत की शाश्वत देन है। गुरुवाणी तब समझ में आती है जब संसार का मोह कम होता हो। सामग्री के आधार पर सुख मत पाओ, पुण्य के आधार पर सुख पाओ। जीवन में भाव, दान, तप, शील का पालन आदि के आयोजनों से पुण्य बढ़ता है। हमारी आत्मा पुण्य का खर्च कर रही है, दूसरे नए सुख को पाने के लिए पुण्य का कर्ज भी ले रही है।
ज्ञानी कहते हैं पुण्य की कमी को पूरा करो, आपकी इच्छाएं अपने आप पूरी हो जाएगी, लेकिन कर्ज वाला काम मत करो। मुझे पता चल गया, मेरे पुण्य मेरे पास नहीं है तो अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, तभी वैराग्य आता है। भौतिक क्षेत्र में अपना पुण्य औरों के सहारे नहीं बना सकते, धर्म के क्षेत्र में अपना पुण्य औरों के सहारे बना सकते हैं। ज्ञानी कहते हैं सारी भौतिक उपलब्धियां जैसे अनुकूल परिवार, सुख- सुविधा आदि भी पुण्य से ही मिलता है। पुण्य धर्माराधना करने से मिलता है।
आचार्यश्री ने आगे कहा जिनकी संपत्ति लगभग विचार बिगाड़ती है, उनकी संपत्ति संग्रह का कारण बनती है। कुछ पुण्यात्माएं होती है जिनकी संपत्ति सन्मति पाती है। दुःख में से दर्द पैदा करे, उसको रागी कहते हैं। दुःख में से विवेक पैदा करे उसको निरागी कहते हैं। दुःख में से वैराग्य पैदा करे उसको वैरागी कहते हैं। व्यक्ति अपने पाप का स्वीकार करे और पाप के विपाक को देखे।
दूसरों के दुःखों की वेदना होनी शुरू हो जाए तो मानो मोक्ष नजदीक है। जिस चीज का पुण्य मेरे पास नहीं है, उसके लिए रोओ मत। वैराग्य विकसित हो रहा है तो उसे जलने मत दो। उन्होंने कहा संपत्ति अतियोग से जलती है, शरीर जलता है अति भोजन करने से, सदाचार जलता है अति काम की भावना से और अपने पास रहा वैराग्य जलता है वैर भाव से। ज्ञानी कहते हैं प्रेम न रखो तो कोई बात नहीं, वैर भाव मत रखो। संसार के दुख- दर्द धर्म के कारण बदल जाते हैं, तब आर्तध्यान धर्मध्यान में बदल जाता है।
उन्होंने कहा क्षमा करने में समझदारी है, क्रोध करने में मगजमारी है। क्रोध से पुण्य कट होता है, क्षमा से पुण्य बढ़ता है। ज्ञानी कहते हैं आपके दोष को प्रकट करने का साधन है आपका क्रोध। हमारी स्थिति है हम हमारी आत्मा को ठगते हैं। धर्म कभी तकलीफ नहीं देता है, मोह, राग- द्वेष तकलीफ देते हैं। साधु को साधना का कष्ट नहीं लगता। आपके पास साहस, पाप का भय, परिपक्वता है तो तप को बीच में छोड़ना नहीं चाहिए।