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धर्म के अस्तित्व का मुख्य कारण साधु है: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

धर्म के अस्तित्व का मुख्य कारण साधु है: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने नवपद की आराधना के दौरान साधु का महत्व बताते हुए कहा कि धर्म के अस्तित्व का मुख्य कारण साधु है। 

साधु की परम्परा नहीं रहने से धर्म का अस्तित्व खत्म हो जाता है। आप चतुर्विध संघ में तब ही रह सकते हो यदि श्रमण के उपासक बनो। यदि चतुर्विध संघ के साथ रहने की योग्यता चाहिए तो कम से कम साधुता के प्रति आदर, बहुमान होना चाहिए। जैन साधु निर्ग्रंथ होते हैं।

निर्ग्रंथ यानी जिसके हृदय में किसी प्रकार की राग द्वेष की गांठ न हो। यदि मन में परिग्रह का ममत्व, दुर्भाव है तो वह निर्ग्रंथ नहीं है। जीवन में एक आकस्मिक घटना से राग द्वेष हो जाते हैं। राग टूटने पर कटु अनुभव हो गया तो संसार से विरक्ति हो जाएगी। महापुरुष कहते हैं उसकी भी अनुमोदना की जानी चाहिए।

उन्होंने कहा सच्चे गुरु वह है जिनका शिष्य के प्रति मोह न हो। शिष्य के आत्म कल्याण के लिए दीक्षा दे वह अलग बात है। जिसके हृदय में साधु के प्रति बहुमान नहीं है वह दीक्षा के पात्र नहीं है।
हृदय में गांठ रखकर आ जाए तो साधुता कहां से आएगी। साधुनाम दर्शनम् पुण्यम यानी साधु के दर्शन के प्रभाव से पुण्य मिलता है, संवेदना प्रकट होती है। मृत्यु की शैया पर जिसे साधु भगवंत के दर्शन मिले और उनके मुख से नवकार मिल जाए तो उसका भव सुधर जाता है।
उन्होंने कहा साधु पद की आराधना यही करनी है कि या तो आप साधुपन के अन्दर आ जाओ, नहीं तो इतनी भावना रखो कि साधुपन आपके अन्दर आ जाए। साधुपन अपने अन्दर लाने का तात्पर्य है साधुपन की भावना को भावित करना। श्रावक वही है जिसे साधु बनने की भावना रहे इसीलिए उसे श्रमणोपासक कहा गया।
उन्होंने कहा साधु जीवन की सात विशिष्टता है। पहली विषय वैराग्य यानी संसार के सुखों के प्रति वैराग्य। त्याग करना सरल है पर वैराग्य कठिन है। दूसरी विशिष्टता है लोकेशना का त्याग यानी लोगों की वाहवाही की इच्छा न होना।
तीसरी विशिष्टता है दस प्रकार के यतिधर्म का पालन करना। चौथी सहायक या उत्तरसाधक बनने की लालसा। वैयावच्च के कारण जो आत्मगुणों का विकास होता है वह अप्रतिपाति होता है। उसके कारण कभी  पतन होने का चांस नहीं होगा।
साधु के बारे में गलत बोलना वैयावच्च गुण की अशातना है। पांचवी विशिष्टता गुरु आज्ञा का पालन। इससे जीवन में कभी दुर्गुण पैदा नहीं होंगे। छठी विशिष्टता पांच महाव्रतों के  पालन में अतिचार न लग जाए। सातवीं विशिष्टता भिक्षाचारी यानी घर घर से आहार लाना। साधु को जंगम तीर्थ कहा गया है। साधु के प्रति आपका बहुमान बढे और संयम जीवन प्राप्त करने की भावना रखें।

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