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धर्म और कर्म समांतर रुप से चलता है: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

धर्म और कर्म समांतर रुप से चलता है: आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर

किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा जीवन में धर्म और कर्म समांतर रुप से चलता है। आप जीवन में कर्म भी कर रहे हैं और धर्म भी। कर्म के मुकाबले धर्म कम होगा।

लेकिन आपको धर्म के प्रभाव पर श्रद्धा होनी चाहिए। धर्म कितना किया है यह महत्वपूर्ण नहीं है, धर्म के प्रति श्रद्धा कितनी है यह महत्वपूर्ण है।

अनंत भवों के कर्मों को तोड़ने की ताकत धर्म में है। स्वार्थवश, पापवश कर्म का हिसाब किया जाए तो अनंत कर्म हमारी आत्मा में पड़े हैं। इनको तोड़ने का सामर्थ्य केवल धर्म में है।

अज्ञानतावश कर्म बंध गए लेकिन धर्म बताने वाले त्रिलोकी परमात्मा है। परमात्मा ने धर्म के मर्म को समझकर ही हमें धर्म बताया है। यह सामान्य बात नहीं है।

जैसे पानी ने अपना स्वभाव न तो चौथे आरे में बदला है न ही वर्तमान पांचवे आरे में। द्रव्य का स्वभाव है कि वह अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ता। चौथे आरे में पानी का कार्य प्यास बुझाना था और पांचवे आरे में भी पानी प्यास बुझाता है। धर्म का स्वभाव भी वैसा ही है।

उन्होंने कहा धर्म करने के तीन साधन है करण, उपकरण और अन्तःकरण। करण यानी शरीर जो धर्म करने का साधन है। संथारा, पूजा करने की थाली, कटोरी आदि उपकरण साधन है। करण और उपकरण से धर्म बहुत हो रहा है। लेकिन जो हृदय से धर्म होता है वह अन्तःकरण से किया धर्म है। ऐसा धर्म फलदायी होता है।
धर्म की शुद्ध भावना के कारण हमें अच्छा भव मिलता है। इसके लिए धर्म और परमात्मा के प्रति श्रद्धा भाव होना चाहिए। सबरी के अन्तःकरण का प्रभाव था कि रामचंद्रजी उसकी झोपड़ी में गए और उन्होंने सबरी के झूठे बैर खाए। धर्म में करण व उपकरण भी उपयोगी है लेकिन अन्तःकरण मुख्य है। शुभ व मंगल भावना अन्तःकरण में है तो जीवन शुभ व मंगल बनेगा। परमात्मा का अवतरण हमारे हृदय मंदिर में करना है।  

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