रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी मरासा ने प्रवचन में बताया कि कहते है जीवन निर्वाह सभी जीवों की परम आवश्यकता है किंतु जीवन जीने में अंतर है। यदि श्रेष्ठ तरिके से जीवन जी लेता है तो संसार के दुःख कुछ अति अल्प हो जाता है! इसलिए प्रभु ने धर्म का निरुपन किया। धर्मकला आ गई तो सब काला आ गई। जिवन जीने के लीए परम आवश्यक भोजन है। संसारी जीव मात्र कब अन्न का कीड़ा है।
सभी तीर्थकर तप पर जोर देते है और स्वयं भी तप करते है। किंतु पारणा तो उन्हें भी करना ही पड़ता है। शरीर का भाड़ा चुकाना ही पड़ता है! लेकिन वह भोजन कैसा हो? यह विवेक है! भोजन हित मित्त परिमित हो। अन्यथा रोग हो जाता है।मरण तुल्य वेदना हो जाती है। जिस भोजन से रोग उत्पत्ति हो उसका त्याग कर दिजीए! सही भोजन ही शरीर के लिए औषधि है। दवाई तो रोग दबाती है।
आहार से ही रोग दूर होगा अतः ज्ञानियों ने आहार विवेक पर जोर दिया। शरीर स्वस्थ है वह परम सुख देता है। धर्म क्रिया के अनुकूल रहता है। जीव लोलुपता वश आहार संयम नहीं रख पाता है। रोग उत्पति के नौ कारण है उसमें एक कारण है अति आहार जो शरीर के लिए हितकारी नहीं उसका त्याग कर दो! उदा:- एक राजा को आम का शौक था। एक वैध ने सलाह दी आम का त्याग कर दो! यदि जीना चाहते तो आम को छोड़ दो ! आम “दवाई से शरीर आरोग्य हो गया एक बार भ्रमण हेतु निकला वहाँ एक आम का बाग था। आम की सुगन्ध से राजा का जी ललचने लगा।
राजा आम खाने की जीद करने लगा। मंत्री समझाते है किंतु राजा आम खाने लगा। रास्ते में ही काल धर्म कर्म को प्राप्त हो गया। अतः जिसके लिए जो विष है उसका त्याग कर दो! रोग मरण का सूचक है। गलत चीज पेट में चली गई है तो वह दुःख देखी ही। अतः भोजन अनुकूल ही लो। कैसे कब कितना खाना है विवेक रखें। यदि विष भी शरीर के अनुकूल लिया तो अमृत का कार्य करेगा और यदि अमृत भी अधिक भाग में लिया तो वह विष का कार्य करेगा
कर्जा करके कभी खर्च नहीं करना – कर्जा लेकर बनाएगा और पत्रिका छाप कर लोगों को बुलाएगा उसके उपर और कर्जा बढायेगा। कर्जा लेकर जन्म दिन सालगिरह नहीं मनाना ऐसे अनर्थ के खर्च करना जरूरी नहीं? दिखावा नहीं करना! यदि करते है तो जीवन भर दुःख देखना पड़ता है। कर्ज से सुख चला जाता है! यदि आवश्यक ईलाज कराना हो लेना पड़े तो बात अलग है। कम खर्च में जीवन निर्वाह करना सीखो। उत्तम कोटी का जीवन जीया जा सकता है! आप टीवी, फ्रिज एसी आदि के आधिन हो चुके है इसलिए आपको आवयक लगता है।
किंतु यह विलासिता आवश्यक नहीं । एक राजा मंत्री से पानी माँगा तो मिट्टी के घड़े का पानी पिलाया राजा आश्चर्य हो गया की इतना स्वादिष्ट पानी तो मेरे घर में भी नहीं! मंत्री कहा है आपके सोने चाँदी के घड़ा में पानी में वह इतना स्वाद नहीं होता। कर्जा दस पुत्रों के तनाव से भी अधिक तनाव देता है। कार्जदार सुख की रोटी भी नहीं खा सकता है कर्ज में और डूबता चला जाता है। जीवन दुख दायी बन जाता है। अत: जीवश निर्वाह अल्प में करों सुख से जीओ जितनी चादर उतना पैर फैलाए। सोना चाँदी आभूषण जीवन के आधार नहीं है।
पाप, ईर्ष्या, राग द्वेष बढ़ाता है। अत: सादा, जीवन, सादा भोजन और उच्च विचार रखो। रानी कलावती को आभूषण के कारण हाथ कटवाने पड़े! आभूषण का महत्व नहीं । चारित्र और गुणों का महत्व है। अतः रीति से खाना और रीति से खर्च करना सुखी बनने के लिए जितनी कमाई है उसमें जीवन निर्वाह करना और उसमें कुछ भविष्य के लिए बचाकर रखना और दूसरों की मदद करने की भावना रखना!
संचालन मंत्री नरेंद्र मरलेचा ने किया।