गुजरातवाड़ी जैन संघ में विराजित आचार्य मेघदर्शनसूरीश्वर की निश्रा में सिद्धितप के तपस्वीयों का वरघोड़ा- पारणा सहित तप उत्सव के विशिष्ट चढ़ावे बोले गये। सभी ने अपनी विशिष्ट उदारता का अद्भुत दर्शन करवाया। आचार्य ने प्रवचनमाला में बताया कि कर्मबंध से कर्मानुबंध की ज्यादा महत्ता है। बंध से ज्यादा चिंता हमें अनुबंध की करनी चाहिए। शुभ भावों की धारा से अच्छा अनुबंध तैयार होता है। मोक्ष का लक्ष्य या परोपकार का भाव शुभ अनुबंध को तैयार करता है। सभी समृद्धि के साथ अनासक्त भाव की भी प्राप्ति कराता है।
उन्होंने कहा कि वैराग्य का भाव जब पैदा होता है तभी संयम पालन की ताकत अपने आप भीतर में पैदा हो जाती है। मिथ्यात्वी जीवों को भी मोक्ष मार्ग में प्रवेश कराने के लिए द्रव्य से सम्यक्त उच्चारा के धीरबुद्धि वाले महापुरुषों दीक्षा जीवन भी दे देते हैं। द्रव्य से स्वीकारा हुआ संयम जीवन भी गुरु समर्पितता भाव से मोक्ष दिलाने वाला सच्चा संयम जीवन बन जाता है। हमारी सभी धर्म आराधना जब भी परमात्मा की आज्ञा के अनुसार जिस तरह बताई है, उसी ही तरह करेंगे और साथ में हमारी आत्मा मैत्री- प्रमोद- करुणा और माध्यस्थ भाव से भावित बनेगी, तभी सच्चा धर्म बन जाएगा। यह सच्चा धर्म दु:ख- पाप- दोष- दुर्गति से बचाकर सुख- पुण्य- गुण- सद्गति के साथ मोक्ष तक पहुंचाएंगे। जगत के सभी जीवों के हित की कामना-भावना ही मैत्री भाव है।
एक भी जीव के बारे में हल्का सोचना- बोलना- करना नहीं है, वह मैत्री भाव का असली कारण है। हमें निंदा किसी की भी करनी नहीं चाहिए। आज की पापी आत्मा भी कल परमात्मा बन सकती है। दूसरों के गुणों की अनुमोदना करना प्रमोद भाव है। किसी भी व्यक्ति के प्रति ईर्ष्या नहीं करना, वह प्रमोद का भाव का अमलीकरण है। दु:खी जीवो के प्रति करुणा भाव से भावित बनने के लिए मैं कभी भी किसी को दु:खी नहीं करूंगा का संकल्प और प्रयास करुणा का भाव का अमलीकरण है। माध्यस्थ भाव पापियों के प्रति तिरस्कार नहीं, उपेक्षाभाव का अमलीकरण रूप पैदा करना है।