चेन्नई. किलपॉक में विराजित आचार्य तीर्थभद्र सूरीश्वर ने कहा भावना चार प्रकार की होती है मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ। दूसरे की हित की चिंता करना मैत्री भावना एवं गुण देखकर खुश होना प्रमोद भावना है। दूसरे के दुख, दर्द बांटना करुणा भावना और उनकी उपेक्षा नहीं करना माध्यस्थ भावना है। जैन दर्शन ने पापी के प्रति सद्भावना, प्रेम, करुणा दर्शाना बताया है। हमें पापी से घृणा नहीं बल्कि पाप की भावना को नष्ट करने का प्रयास करना चाहिए।
उन्होंने कहा स्वार्थ भावना के कारण हमारी आत्मा नीगोद अवस्था से संसार में भ्रमण कर रही है। सब जीवों का कल्याण हो, हमारी यह भावना होनी चाहिए। हर किसी जीव में दुर्गुण, दोष होना आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन उनके प्रति तिरस्कार की भावना पैदा नहीं होनी चाहिए।
उन्होंने कहा तीर्थंकर परमात्मा खुद के सुख की चिंता न कर जगत के सारे प्राणियों के सुख और कल्याण की भावना के कारण तीनों लोक में पूजनीय बने। जब तक स्वार्थ भावना का त्याग नहीं करेंगे, जीवन में अशांति ही होगी, हमें दुर्गति के मार्ग पर जाना पड़ेगा।
जहां परमार्थ की भावना प्रबल है वहां अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढने से कोई नहीं रोक सकता। हमें तीर्थंकर परमात्मा के जीवन चरित्र का अनुसरण करना चाहिए।
उन्होंने कहा सम्यक ज्ञान जीवन में विपरीत संयोग में भी शुभ परिणाम ला सकता है। जीवन में कोई कष्ट आ ए उसे हंसते हंसते सहन कर लेना चाहिए। यह सब कर्म की निर्जरा और पुण्योदय को जगाने के लिए है। हमें यह याद रखना चाहिए कि दुख और कष्ट हमारे कर्मों के प्रभाव से आते हैं।
सिद्धर्षि गणि कहते हैं नीगोद अवस्था से मनुष्य भव की संसार यात्रा को जानकर भी जीवन में विरति पैदा नहीं होती है तो हकीकत में वह मनुष्य नहीं, पशु है। कम से कम संसार से विरक्ति भाव तो पैदा होना ही चाहिए। यहां उपमिति ग्रंथ का दूसरा भाग खत्म हुआ। वरिष्ठ व कर्मठ श्रावक पुखराज जैन के देवलोकगमन आचार्य ने उनकी आत्मा को शाश्वत सुख प्राप्ति की कामना की।