बेंगलुरु। दान, शील, तप और त्याग इस देश की विशेषता है। भारत में पर्युषण पर्व ही ऐसा है जो दान, तप के लिए प्रेरित करता है। भगवान महावीर ने भी गुप्त दान को सर्वश्रेष्ठ दान की संज्ञा दी है। यदि दान नाम कमाने के लिए या पुण्य कमाने के लिए हो तो दान नहीं कहलाता है।
पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के अवसर पर आयोजित धर्मसभा में उक्त विचार आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीजी ने यहां अक्कीपेट उपाश्रय में व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि दान देने वाला व लेने वाला दोनों ही सुपात्र होना चाहिए। ज्ञानियों ने कहा है कि हाथ की शोभा कंगन से नहीं दान से होती है। अहिंसा, सत्य और तप जिसके पास है, उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं।
जो मानव शरीर के बजाय आत्मा का चिंतन करता है उसका जीवन सार्थक है। देवेंद्रसागरसूरीजी ने कहा कि जैन धर्म में त्याग का सर्वाधिक महत्व बताया गया है। श्रावक के कर्तव्यों में साधार्मिक भक्ति भी एक प्रमुख कर्तव्य है। अंत में आचार्यश्री ने कहा कि पौषध व्रत की महिमा की परमात्मा ने स्वयंमुख से प्रशंसा की थी।
पौषध व्रत लेने वाली भव्य आत्मा को एक दिन के लिए भी साधु के समान माना जाता है। अज्ञान दूर करने का सशक्त माध्यम स्वाध्याय है। उन्होंने कहा कि स्वाध्याय दृष्टि परिमार्जन का साधन है, स्वाध्याय द्वारा ज्ञानार्जन कर क्षीर नीर भेद करने की क्षमता का विकास करते हुए साहित्य के अध्ययन से स्वयं एक सुसंस्कृत समाज की रचना का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।