नार्थ टाउन में विराजमान गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि आत्म बंधुओ, दानों मे श्रेष्ठ दान अभयदान है। संसार में सबसे बड़ा दुख भय का होता है। व्यक्ति विचारों से घबरा के चिन्ता करने लगता है भविष्य में कुछ बुरा हो गया। तो क्या होगा ये डर सभी को सताता है भगवान कहते है जो सभी प्रकार के भय से मुक्त रहता है उसे किसी प्रकार की चिन्ता नहीं सताती। मोह कर्म के उदय से भय उत्पन्न होता है। जिसे किसी प्रकार का मोह नही होता उसे भय भी नहीं सताता ।
सभी गति के जीव भयभीत रहते है। तीर्थंकर ने इस बात को जाना और अभय दान को निरूपण किया। साधु-साध्वी को किसी प्रकार का मोह नही इसलिए वे सदैव प्रसन्न रहते है। साधु-साध्वी स्वयं भी निर्भय रहते है औरो को भी भय मुक्त रहने का उपदेश देते है। भय मुक्त व्यक्ति का चेहरा हर पल कमल के पुष्प की भाँति खिला रहता है। भगवान ने जो धर्म का निरूपण किया उसको सम्यग प्रकार से पालन करने वाला सभी प्रकार के भय से मुक्त रहता है। पुण्यवानी आने पर ही भाग्य खुलते है अन्यथा कही भी चले जाओ कर्म पीछा नहीं छोड़ते। पुराने जमाने में उच्च संस्कार दिये जाते थे जिससे धन
सम्पत्ति जाने पर भी व्यक्ति धर्म ध्यान को नहीं छोड़ता था। दरिद्रता आने पर भी धर्म ध्यान करते हुए संतुष्ट, रह कर जीवन जीते थे बहुत से लोग धर्म स्थान में जाते है, धर्म श्रवण भी करते है पर धर्म को आचरण में नहीं लाते हैं।