किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्य केशरसूरीजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने अध्यात्म कल्पद्रुम ग्रंथ के कुल सोलह अधिकार में चौदहवें अधिकार मिथ्यात्व का निरोध कैसे किया जाए, उसकी विवेचना करते हुए कहा कि मन के अंदर रहा मिथ्यात्व और साधन में रहा परिग्रह, दोनों बहुत ही दोषपूर्ण है।
परिग्रह का मतलब है संपत्ति का अनावश्यक संग्रह करना। उन्होंने कहा संपत्ति खराब नहीं है, परिग्रह खराब है। संपत्ति से इतिहास नहीं बनता है, दानधर्म से इतिहास बनता है। ज्ञानियों ने परिग्रह को छोड़ने के लिए धन के ममत्व का त्याग करना बताया है। उन्होंने कहा धर्म के क्षेत्र में मिथ्यात्व सबसे बड़ा अपमानजनक शब्द है। सम्यक्त्व आने पर ही जागृति आती है। मिथ्यात्व का उन्मूलन करने का उपाय है सद्गुरु का प्रवचन श्रवण करना। सम्यक्त्व की सबसे महत्वपूर्ण परिभाषा है जिनेश्वर द्वारा कहा गया ही सत्य है।
उन्होंने कहा जब हम दोषों को दोष नहीं मानते हैं तो वह मिथ्यात्व है। जिसने अपने पापों को अच्छा मान लिया, वह घोर मिथ्यात्वी है। आभिग्रहिक मिथ्यात्व यानी मन से खड़े किए शास्त्र व नियम को मानना। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मनगढ़ंत सिद्धांतों से नए-नए पंथ, संप्रदाय का निर्माण करना। यह अटूट सत्य है कि दुनिया की सारे धर्म, पंथ रुपी नदियां परमात्मा के दरिये से ही निकली हुई है। कुछ धर्मों ने अहिंसा, संयम के बिना अपने धर्म को ही सत्य कह दिया, वहां मिथ्यात्व का दोष लगता है।
आचार्यश्री ने कहा अब प्रश्न यह उठता है कि धर्मतत्त्व चेतन है या जड़? ज्ञान, दर्शन, चारित्र आत्मा के गुण है। इसलिए वे चेतन है। इसी तरह प्रभु, प्रतिमा, पुस्तक, चारित्र के उपकरण, जड़ है, तथापि वे ‘धर्म’ है। तात्पर्य यह है कि धर्म चेतन भी है, जड़ भी है। शास्त्रों में कहा गया है गुण को दोष और दोष को गुण मानना, वह मिथ्यात्व है।
ज्ञानी कहते हैं दोषों के ऊपर प्रेम करना अविवेक है। दूसरों के गुणों के प्रति द्वेष करना यानी गुणवान व्यक्ति को देखकर प्रशंसा नहीं करना, यह भी मिथ्यात्व है। उन्होंने कहा व्यक्ति की कद्र उसके गुणों से करनी चाहिए। कुछ पंथ यह मानते हैं कि स्त्री को मोक्ष नहीं मिल सकता, वे इसका कारण यह बताते हैं कि स्त्री अत्यधिक पाप नहीं कर सकती है तो अत्यधिक कर्मनिर्जरा भी नहीं कर सकती। यह बात युक्तियुक्त नहीं है। जिनकल्प लिए बिना केवलज्ञान नहीं मिलता, ऐसा नहीं है। अनाभिग्रह मिथ्यात्व यानी सब धर्म समान है, सब भगवान महान् है, ऐसा मानना। उन्होंने कहा धर्मस्थान त्याग और योग का स्थल है, विलासिता और भोग का नहीं।