जैनाचार्य श्री ने कहा कि :- आत्मा के बडे दो शत्रु है – दर्प और कंदर्प , दर्प यानी अभिमान और कंदर्प यानी काम वासना।
भारत देश की भुमि पर हुए दो बडे युध्द – महाभारत और रामायण के पीछे मुख्य कारण है ये दर्प और कंदर्प। दुर्योधन के सत्ता के अभिमान के कारण कौरव और पांडव के बीच में महाभारत का युध्द लडा गया।
तो रावण राजा के अंत:पूर में 16000 श्रेष्ठ रुपवती स्त्री एवं मंदोदरी जैसी मुख्य पट्टराणी होने पर भी सीता मे मोह के कारण राम -रावण के युध्द में रावण को सब कुछ हार जाना पडा।
जैसे समुद्र में चाहे कितनी ही नदियाँ मिल जाय, वो समुद्र कभी भी तृप्त नहीं होता हैं। श्मशान भुमि में चाहे कितने मुर्दे जलाए जाए, श्मशान भुमि भी कभी तृप्त नही होती। अग्नि में चाहे जितना ईधन डाला जाय, वो उस ईधन को भस्म करके राख कर देती हैं, अग्नि कभी ईधन से तृप्त नहीं होती हैं।
वैसे ही व्यक्ति अभिमान और पांच इन्द्रियों के विषय भोगो के चाहे जितने भी भोग प्राप्त होने पर तृप्त नहीं होता हैं।
हमे लगता है कि हम पांच इन्द्रिय के विषय का भोग करते हैं, जबकि वास्तव मे हम भोगो का भोग नही करते, ये विषय भोग हमारे शरीर और आत्मा की सात्विकता का भोग लिया जाता हैं। शरीर शक्तिहीन बन जाता है और आत्मा, अपार एसे कर्मो के मल से मैली बन जाती हैं।
पांच इन्द्रिय के विषय भोग हमे प्रारंभ में ही मीठे लगते हैं अंत मे तो अत्यंत ही दारुण हैं। इन्द्रिय के भोग में और शरीर के क्षणिक सुख के लिए हम आत्मा के शाश्वत सुख का अंत कर देते हैं। आत्मा को भूलकर हम मात्र शरीर केंद्रित जीवन जीते हैं।
लकड़ा कितना ही मजबूत और अच्छा क्यों न हो , परंतु जब उसमे उधई लग जाती है, तब वह लकड़ा धीरे-धीरे अन्दर से खोखला होने लग जाता है। खोखला बना हुआ वह लकड़ा बाहर से सुन्दर लगता है। परंतु अन्दर से तो खोखला ही हो गया होता है।
मनुष्य को प्राप्त ये पांच इन्द्रियां भी धूण कीडे की तरह होती हैं , जो साधु के चारित्र रुपी लकडे को अन्दर से कुतरने का काम करती हैं।
आत्महित के लिए सम्यग्दर्शन की प्राप्ति करनी हो तो अथवा आत्म विकास के लिए देशविरति या सर्व विरति धर्म प्राप्त करना हो तो उसके लिए इन्द्रियजय खुब जरुरी हैं।
जो इन्द्रियो का गुलाम है, वह सम्यक्त्व भी प्राप्त नहीं कर पाता हैं जो देशविरति या सर्वविरति धर्म की तो क्या बात करे।
दि, 2 जुलाई को प्रातः 6:30 बजे पूज्य आचार्य भगवंत आदि ठाणा का चातुर्मास हेतू मंगल प्रवेश होगा।