तणुकु के श्री शांतिनाथ राजेन्द्र जैन भवन में आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी के सुशिष्य मुनि श्री संयमरत्न विजयजी मुनि श्री भुवनरत्न विजयजी ने प्रवचन देते हुए कहा कि जिसने अहिंसा और आत्मीय प्रेम को समझ लिया वही वास्तव में पंडित होता है।
ज्यादा पुस्तकें पढ़ने से कोई पंडित नहीं होता।पोथी पंडित ही संघ,समाज व राष्ट्र को खंडित करता है।जिस जीव में संयम-तप-त्याग-वैराग नहीं होता,वे ‘बाल- जीव’ कहलाते हैं।
जिसने यम-नियम,व्रत-पच्चक्खाण लेकर सर्व पापों का त्याग किया है,वे जीव ‘पंडित’ कहलाते हैं और जो कभी व्रती,तो कभी अव्रती बन जाता है,वह ‘बाल-पंडित’ जीव कहलाता है।
जिसने अपने समस्त कर्मों को ज्ञान रूप अग्नि में भस्म कर दिये हैं और जो निष्काम भावना से संकल्प रहित होकर कर्म करता है,वे भी पंडित कहलाते है।विद्वानों की दृष्टि में मोह कर्म को नष्ट कर देने वाला पंडित कहलाता है, तो जैनागमानुसार त्यागी-वैरागी-संयमी जीव पंडित कहलाता है।
लोभ,तृष्णा व कामनाओं से भरा हुआ व्यक्ति कभी भी पंडित नहीं बन सकता।साधक हमेशा व्यर्थ की कामनाओं से दूर रहकर दर्शन,ज्ञान,चारित्र की आराधना व कर्मनिर्जरा के साथ विशुद्ध सेवा करने की कामना रखता है।
पवित्र कामनाओं का अभ्यास एवं भौतिक कामनाओं से मुक्ति की अभिलाषा ही साधना का महत्वपूर्ण मार्ग है।संकल्प-विकल्प रहित होकर कार्य करने वाला जीव ‘पंडित’ बन जाता है।
मुनिद्वय 13 जनवरी को गुरु सप्तमी महोत्सव राजमहेन्द्री के निकट आए गुम्मीलेरु तीर्थ में संपन्न कर काकीनाड़ा, विशखापट्टनम होते हुए सम्मेतशिखर की ओर विहार करेंगे।