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त्यागमय जीवन मेँ मानव जीवन की सार्थकता: विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा

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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप मे जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- अपने जीवन व्यवहार मे हमे दो तत्वों के सम्पर्क मे ही आना पड़ता है -जीव और अजीव अथवा चेतन और जड़ ।
इन पदार्थों के प्रति अपना कैसा व्यवहार चाहिये, ताकी नये कर्मबंध न हो , इसके बारे मे तारक जिनेश्वर परमात्मा ने बतलाया है ।

जड़ पदार्थो के प्रति हमारे दिल मे विरक्ति भाव और जीव -चेतन पदार्थ के प्रति वातसल्य भाव होना चाहिये। जड़ तत्व परिवर्तनशील है, इसलिए पर्याय सतत बदलते रहते है। आज अच्छा लगने वाला पर्याय , कल वही घृणा का कारण बन सकता है आज का सुंदर पर्याय कल बिभत्स पर्याय हो सकता है।

अतः जड़ पदार्थो हमारी आत्मा के लिए बन्धन रुप न बने , इसे हेतू हमे उन पदार्थो के प्रति विरक्ति भाव रखना चाहिये। विरक्ति अर्थात् मनपसंद वस्तु के प्रति राग न करना और नापसंद पर्याय के प्रति द्वेष न करना । मोहाधीन आत्मा जड़ पदार्थो के अनुकूल पर्यायों मे ही सुख की कल्पना कर के उन मे राग( आसक्ति ) और प्रतिकूल पर्यायों के प्रति द्वेष करती है। इन राग -द्वेष के कारण ही आत्मा नये कर्मों का बंध करती है।

नये कर्मों से बचने के लिए हृदय मे विरक्त भाव दृढ़ करना होगा। मानव जन्म की वास्तविक सफलता और सार्थकता , संपूर्ण त्यागमय जीवन जीकर मोक्ष मार्ग की आराधना और साधना करने में ही हूई है। और इसीलिए तो जिनेश्वर भगवंतो ने सर्व प्रथम त्यागमय साधु-धर्म का उपदेश दिया है।

जो आत्माएँ संपूर्ण त्यागमय साधु -धर्म का स्वीकार करने मे असमर्थ है, उनके लिए श्रावक धर्म अर्थात् आंशिक त्याग धर्म का मार्ग बतलाया है। श्रावक जीवन अर्थात् अर्थ और काम का सर्वथा त्याग नही, अपितु अर्थ और काम पर नियन्त्रण रखने वाला जीवन । अर्थ पर नियन्त्रण के लिए न्याय -नीति और परिग्रह का विधान किया गया है।

सर्व विरती को अपने जीवन का आदर्श रखनेवाले श्रावक का जीवन भी अन्य सदगृहस्थो के लिए एक आदर्श जीवन होता है। ऐसे युगल के जीवन को देखकर अनेकों को सदाचार प्रधान जीने की प्रेरणा मिलती है। आर्य -संस्कृति मे लग्न विधान भोगों के पोषण के लिए नही, अपितु भोग पर नियंत्रण के लिए ही है।

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