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तृप्ति में ही है आनन्द की अनुभूति: गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

तृप्ति में ही है आनन्द की अनुभूति: गच्छाधिपति जिनमणिप्रभसूरिश्वरजी

 

श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में धर्मपरिषद् को संबोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने शनिवारीय प्रवचन में कहा कि समता में रहना ही आनन्द में रहना है और आनन्द में रहना ही समता में रहना है। जीवन में जो है, उसमें भी सन्तुष्टि के साथ में रहने वाला अभाव में होते हुए भी आनन्दित रह सकता है, प्रसन्नचित रह सकता है। आनन्द के लिए जीवन में प्राप्ति ही नहीं, अपितु तृप्ति चाहिए। आनन्द हमेशा तृप्ति में है। एक व्यक्ति नेगेटिव न्यूज को पढ़ कर भी मुस्कुराहट में रहता है। वह जब अखबार में कोई दुर्घटना या मृत्यु की खबर पढ़ता है, तब वह उस के प्रति मंगलकामना करता हुआ, प्रभु को धन्यवाद देता है कि- मैं तो सुखी हूँ, स्वस्थ हूँ। हृदय में आनन्दित रहे।

◆ सामुहिक बंधन से ही सामुहिक वेदना का भुगतान करना पड़ता है

आचार्यश्री ने आगे कहा कि साधु जैसे अपने आवश्यक की प्राप्ति के बाद तृप्ति में आ जाता है। तृप्ति के लिए प्राप्ति का होना जरूरी नहीं। आत्मरूची, आत्मबोध के प्रकट होने पर किसी को रुपये उधार दिये और वह प्रेम से मांगने पर भी नहीं देता है, तब वह समभाव से रहता है और यह भावना भाता है कि मेरे कोई पुर्व जन्म के कर्म उदय में आये और मेरा छुटकारा हो गया। वही अगर हम सामने वाले के प्रति दुर्भावना के भाव लाते है तो पुनः नये कर्मों का बन्धन होता है। सामुहिक यातना या दुर्घटना के भुगतने के बारे में बताया कि पुर्व में सामुहिक कर्म बंधन के कारण ही वर्तमान में भुगतान करना पड़ता है जैसे सिनेमा घर में किसी फिल्म के दृश्य में वहां बैठे व्यक्ति, यह जानते हुए भी यह तो मात्र अभिनय है फिर भी सभी राग द्वेष की भावना लाते है, तो उसी के कर्म बंधन के परिणाम स्वरूप बाद में सामुहिक भुगतना पड़ता। हम कही या किसी घर में जन्म लेते है तो उसमें भी हमारे कर्म का भुगतान होता है। एक को वेदनीय कर्म का उदय होने पर भी घर के सभी सदस्यों को साथ में भोगना पड़ता है।

◆ पौषध में की जाती है भाव पूजा

आचार्य प्रवर ने कहा कि पौषध में चार चीजों का त्याग किया जाता है- सबसे पहले आहार का, 2. शरीर के सत्कार का, 3. किसी भी प्रकार का आरम्भ, संभारम्भ और 4. मैथून का त्याग करते है। पौषध में परमात्मा की भाव पुजा की जा सकती है, द्रव्य पुजा नहीं। फ्रिज में वैसे भी कोई वस्तु मूल स्वरूप में नहीं रहती है और रात्रिकालीन बचा हुआ, बासी खाना भी दुसरे दिन नहीं खाना चाहिए। भगवती सूत्र के अनुसार वायुकाय के जीवों की हिंसा से बचने के लिए मुंह पर वस्त्र या मुहपत्ती का उपयोग करना चाहिए। श्रावको को भी खुले मुंह नहीं बोलना चाहिए।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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