चेन्नई. सोमवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का उत्तराध्ययन सूत्र वाचन कार्यक्रम हुआ। वर्धमानं शरण पवज्जामी के उद्घोष और पुच्छिस्सुणं के सामूहिक पाठ से धर्मसभा की शुरुआत हुई। उपाध्याय प्रवर ने उत्तराध्ययन का श्रवण कराते हुए कहा कि परमात्मा का स्वरूप उन्हीं से जाना जा सकता है, जिन्होंने उन्हें जीया हो। सुधर्मास्वामी परमात्मा के साथ हर सांस में विश्वास जगाते हुए जिए। उन्होंने परमात्मा की दृष्टि और विजन को स्वीकार किया। परमात्मा की ऐसी दृष्टि जो आपत्ति, विपत्ती, भोग, रोग सभी में उनके साथ समान रही, उन परमात्मा के धैर्य को जानें। आचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि जो इसकी अखंड, अभ्यंग आराधना करते हैं वह मिथ्यात्व और संसार को सीमित करते हैं।
सौभाग्यशाली हैं वे जीव जो अपराध की सजा के पलों में अपने अपराध का प्रायश्चित कर लेते है। जो पापों की आलोचना करता है उसकी अन्तरात्मा निर्मल हो जाती है। अपना अपराध स्वीकारनेवाला आराधक बन जाता है और जन्म-जन्मांतर के पाप धो देता है। उन्हें संसार ही नहीं अध्यात्म भी पुरस्कार प्रदान करता है, उन्हें जीवन में अध्यात्म की ऊंचाईयां प्राप्त होती है।
किसी को कुछ देते समय बिना सोचे दे दें लेकिन लेते समय सोच-समझकर लें। बिना चिंतन मांगने वाले भिखारी और गहन चिंतन के बाद मांगने वाले स्वयं परमात्मा बनते हैं। जो व्यक्ति अपने कषायों को समाप्त करने का उपाय देख ले उसके कषाय समाप्त हो जाते हैं। कपिल मुनि ने चिंतन करते हुए अपने लोभ को देखा, समझा और उससे बचे तो उन्हें परमशांति प्राप्त हुई और जिसका मन, भावनाएं शांत हो उसे मृत्यु और जन्म से परे की शाश्वत चेतना का अस्तित्व नजर आ जाता है।
ठाणं सूत्र में कहा गया है कि जब सम्यक जीव देवलोक में जाता है तो दु:खी होता है कि मुझे साधना और परमात्मा बनने का अवसर मिला था, जिसका सदुपयोग कर सकता था लेकिन नहीं कर पाया और अब देवलोक से पुन: मनुष्य भव की यात्रा करते हुए उसी मार्ग पर दुबारा चलना पड़ेगा।
जो वचन निभाना जानते हैं वे स्वयं के साथ दूसरों का जीवन भी बदल देते हैं। इस अनित्य दुनिया में अनन्त दु:ख है, ऐसा कौन सा कर्म है जिससे मेरी दुर्गति न हो। ऐसे वचन कहें कि किसी के अन्दर की श्रद्धा और भक्ति का जागरण हो जाए, बल्कि ऐसा नहीं कि किसी को क्रोध या दुर्भावनाएं जाग्रत हो जाए।
जो आसक्ति करने वालों में स्वयं आसक्ति न करे वही जीव मुक्त होता है। एक बार यदि भोगों में उलझ गए तो वे छूट नहीं पाते हैं, उसमें डूबते चले जाते हैं। इनसे बचने में ही जीवन की सबसे बड़ी तपस्या है और धीर पुरुष ही इसे अपने जीवन में साकार करते हैं। जो हिंसा करता है और हिंसा की अनुमोदना करता है वह कभी मुक्त नहीं हो पाता, लोभ की कामना किसी की पूरी नहीं होती, चाहे कितना ही मिल जाए।
पिछले जन्म के रिश्तों की प्रतिज्ञा और दिए हुए वचन के कारण कपिल मुनि ने स्वयं ज्ञान प्राप्त करने के बाद पूर्वजन्म के अपने साथी जो इस जन्म में चोरी करने में प्रवृत्त हो गए थे उन्हें संभाला, केवलज्ञान और मोक्ष मार्ग पर प्रशस्त किया। जब रिश्तों का आघात मिलता है तो मृत्यु से भी अधिक वेदना होती है लेकिन जो आत्मानुभूति में पहुंच गए उनकी तो जन्म-जन्म की वेदना शांत हो जाती है।
तूफानों को झेलने वाले नए रास्तों पर चलते हैं। नेमी के जीवन में संयम और ज्ञान का तूफान आया तो जन्म-जन्म की साधना का बल और मां के गर्भ में रहते हुए की साधना का आलम्ब लेकर भव बंधनों को तोड़ दिया और संयम पथ की राह पकड़ी। जो स्वयं की खोज करता है उसका मोह समाप्त होकर, जीवन में शांति, उजियारा और आत्मानुभूति हो जाती है। नेमी को मौत से परे आत्मानुभूति की अनुभूति और शांति में अपनी असली स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। जब भी कोई संयम और तप अंगीकार करता है तो उस समय जिस देव की दृष्टि पड़ती है वे वहीं से ही नमन और वंदन करते हैं।
नेमी द्वारा सबकुछ त्याग करने पर इन्द्र की दृष्टि उन पर पड़ती है और वे उनकी परीक्षा करने के लिए वेश बदलकर आते हैं और उन्हें तरह-तरह के सांसारिक सवालों और उलझनों में डालने की चेष्टा करते हैं लेकिन नेमी अपने संयम पर अडिग रहते हुए उन्हें अपने अन्तरात्मा के उत्तर देते जाते हैं। वे कहते हैं कि मैंने मन, वचन, काया को ऐसा दुर्ग बना दिया है कि कर्म की सेना उसे भेद ही नहीं सकती है। मंजिल पर पहुंचने वाले रास्तों पर नहीं ठहरते। चाहे दूसरों को कितना ही जीत लो, यदि स्वयं को नहीं जीत पाए, तो हारे हुए ही रहोगे। नेमी कहते हैं कि एक आत्मा को जीत लो तो क्रोध, मान, माया, लोभ सब जीत जाओगे। दूसरों को दान चाहे कितना ही दे दें लेकिन संयम के बराबर त्याग नहीं है। स्वयं के लिए संयम स्वयं को ही करना होता है, दूसरा कोई मेरे लिए संयम नहीं कर सकता।
स्वर्ग के लिए जो यहां त्याग करता है उसे वह स्वर्ग में भोगना ही पड़ेगा, लेकिन यह भोग तो जहर है, कांटे हैं। जो जीव कामना और भोगों की प्रार्थना करे वह बिना इच्छा ही दुर्गति में जाते हैं, वे क्रोध मान, माया, लोभ में उलझ जाते हैं। क्रोध से उसकी ऊर्जा कम होती जाती है, पुण्य घटता है। अहं की गति पाप गति है। माया के कारण उसकी गति ही नहीं होती, उसे कोई रास्ता नहीं मिलता।
लोभ में तो दोनों तरफ से भय है, कुछ मिल भी सकता है और नहीं भी, लेकिन जो मिल जाए तो वह सुरक्षित रह जाए यह निश्चित नहीं है। इस प्रकार नेमी की हर तरह से परीक्षा लेकर इन्द्र संतुष्ट हो जाता है और अपने असली रूप में आकर उनकी स्तुति कर कहता है कि आपका संयम और तप सर्वश्रेष्ठ है। नेमी जीवन में अनन्त तप और साधना करते हुए मोक्षगामी होते हैं।
परमात्मा का सूत्र है कि अन्तरात्मा की मस्ती और श्रद्धा में रहेंगे तो बाहर की कोई भी परिस्थिति इस अनन्त शांति को छीन नहीं सकती।