किलपाॅक में विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा तीर्थ की स्थापना का तात्पर्य है चतुर्विध संघ की स्थापना करना। ऋजुवालिका तीर्थ पर महावीर भगवान ने वैशाख शुक्ल दसमीं के दिन सायंकाल में ऋजुवालिका नदी के तट पर गोदोहिका आसन में शुक्ल ध्यान करते हुए केवल ज्ञान प्राप्त कर तीन लोक के पूजनीय तीर्थंकर परमात्मा बने।
उसके दूसरे दिन ही तीर्थशासन की स्थापना हुई थी। महावीर भगवान के प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम और प्रथम साध्वी चन्दनबाला बनी। तीर्थ स्थापना का रहस्य यह है कि साधना के साथ जो शक्ति उन्होंने प्राप्त की, उस शक्ति को तीर्थ की स्थापना में लगा दिया।
तीर्थंकर की सेवा से जो फल हमें प्राप्त होता है वही फल संघ की सेवा करने से मिलता है, पुण्य उतना ही पैदा होता है। इसलिए चतुर्विध संघ को 25वां तीर्थ कहा गया है। हमारे पुण्योदय से हम चतुर्विध संघ का भाग बने हैं। चौदह लोक के सम्यक दृष्टि देव इसकी सेवा, पूजा और वैयावच्च करते हैं। इन्द्र देव आदि इसे नमस्कार करते हैं।
उन्होंने कहा संघ के साथ जुड़ने के लिए आपको गर्व की अनुभूति होनी चाहिए, लेकिन जो चीज मुफ्त में मिलती है उसकी कीमत नहीं होती है। एक बात याद रखना कि आप जैन कुल में पैदा हुए हैं इसीलिए आप संघ से जुड़ पाए हैं। आपको ज्ञात नहीं है कि आपकी आत्मा ने पूर्व भव में जबरदस्त पुण्य किया, उसकी बदौलत मानव भव और जैन कुल मिला है और आप चतुर्विध संघ से जुड़ पाए हैं।
इसके लिए आपकी आत्मा ने बहुत बड़ी फीस चुकाई है। अब हमारा कर्तव्य बनता है कि हम संघ की सेवा करें। इसका शास्त्रीय मार्ग है जिनबिम्ब, जिनमंदिर, साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका व जिनागम सात क्षेत्र की भक्ति करना, इन्हें समृद्ध बनाना। जिस क्षेत्र में अधिक आवश्यकता है उसे प्राथमिकता देनी है। जिनशासन को मजबूत करना इन सात क्षेत्र पर निर्भर है। इन सात फाउंडेशन में जो कमजोर है वहां हमारा लक्ष्य जाना चाहिए।
जम्बू स्वामी के जीवन चारित्र को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा आठों श्रेष्ठिकन्याओं ने मिलकर यह निर्णय लिया कि वे विवाह करेगी तो जम्बु कुमार से ही करेगी। सबसे बड़ी श्रेष्ठी कन्या समुद्रश्री ने अपने व सब श्रेष्ठिकन्याओं के पिता को निर्णय सुना दिया। पिता को सांत्वना देते हुए उसने कहा हम सब कन्याएं मिलकर जम्बु कुमार को रागी बना देंगे। यदि वे रागी नहीं बने तो हम बैरागी बन जाएंगी और उनके मार्ग का अनुसरण करेंगी।
आचार्य ने कहा यह हमारी आर्य परम्परा के संस्कार थे। स्त्री को कितना भी दुख आता है वे उसे उचित मार्ग से अपना लेती है। स्त्री का जन्म सहन करने के लिए ही होता है। उनके कुछ ऐसे कर्म है जो उन्हें भोग कर पूरा करने के लिए स्त्री का जन्म मिला है। बेहतर है उन कर्मों को यहां खपाकर पूरा करो। यदि ये पूरे नहीं हुए तो अगले भव में साथ में आने वाले हैं।
उन्होंने कहा आज जैन धर्म के कई पंथ, गच्छ बन गए हैं, यह सब अहंकार का नतीजा है। आज तलवार की तीक्ष्ण धार पर चलना आसान है, लेकिन धर्म का पालन करना उससे भी कठिन। सोमवार को आचार्यश्री की निश्रा में मुनिसुव्रत स्वामी सामायिक मंडल की शुरुआत हुई।