रायपुरम जैन भवन में विराजित पुज्य जयतिलक जी मरासा ने प्रवचन में बताया कि तीर्थकर स्वयं की आत्मा को तारने के लिए दिक्षा लेते है! जब तक घाती कर्म को क्षीण कर देते है केवली बनने के उपरान्त ही उपदेश देते है! स्वयं का कल्याण करने के पश्चात भव्य जीवों को संसार में भटकते देख अनुकम्पा से आदेश देते है! और अपने वचनों से किसी का कटिबद्ध नहीं करते किंतु उनके अतिशय से भव्य आत्मा बोध को प्राप्त करती है और व्रत प्रत्याखान अंगीकार करते है।
अपने आत्मा का कल्याण करते है। और जिसने तीर्थकर के मुख से व्रत अंगीकार करते है वह जीव निश्चय ही मोक्ष जाता है। इसलिए ही जिनवाणी का उपदेश देते है! जिनवाणी वह गंगा है जो भवसागर से संतृप्त आत्मा को तृप्ति प्रदान करती है। जब साधारण जल से भी जीवनदान मिलता है तो जिनवाणी रुपी जल तो सारे कष्ट, दुःख, भुख प्यास को मिटा सकता है! और यह जिनवाणी संसार का हर प्राणी श्रावण कर उद्धार कर सकता है। बाधा रहित जिनवाणी ही हैै। मिथ्या धर्म से छुटकारा दिला कर शास्वत सुख प्रदान करती है। ऐसी तीर्थकर वाणी के अंतर्गत 12 व्रत का बोध दिया जा रहा है।
जिसमें 5 अणुव्रत 3 गुणव्रत का बोध दिया जा रहा है। आठवें व्रत के श्रवण पश्चात पच्छखान शेष है! अपने सामर्थ्य अनुसार मर्यादा कर कल पच्खान करते है! चातुर्मास करने का अर्थ है अपने चार मास को साधना से सफल करें! चातुर्मास का पूरा विवेक रखें। नवाँ सामायिक व्रत:- जैन धर्म की प्रमुख साधना है। इस साधना में जीव तत्पर बनता है। जीव विवेक का जागृत होता है! 48 मिनट के समय में जीव अपनी आत्मा, पाप, पुण्य, धर्म, विवेक का चिन्तन करता है! सामायिक में अपनी आत्मा को भावित करने का पुरुषार्थ करता है! अपने व्रतों की शुद्धि, आलोचना आदि का सामायिक में ही विचार किया जाता है।
आठ व्रत जीवन में एक बार ही संकल्प किया जाता है किंतु सामायिक व्रत बार बार लिया जाता है। किंतु व्रत में कितनी सामायिक करूंगा उसका संकल्प किया जाता है। सामायिक आत्मा को संस्कारित कर धर्म से जोड़ने का कार्य करता है! 48 मिनट में पाप पुण्य दोनो प्रवृत्ति को त्याग कर आत्म चिंतन करो जैसे बालक को विद्यालय भेजकर शिक्षा दिलाई जाती है जिसमें बालक दबाव से स्कूल जाता है। किंतु सामायिक बिना-दबाव के बिना फीस के शिक्षित किया जाता है! सामायिक भगवान महावीर की युनिवर्सिटी है। जिसमें जीव को संस्कारित कर मोक्ष मार्ग पर अग्रसार किया जाता है! सांसारिक शिक्षा इस भव में ही काम आती है किंतु यह सामायिक की शिक्षा चौदहवें गुणस्थान तक ले जाती है 20 और सम्स्त बंधन से मुक्त कर देती है।
अनादि काल से जीव पाप में स्मरण कर रही है। संसारिक प्रवृत्तियों का त्याग कराती है!