नार्थ टाउन में ए यम के यम स्थानक में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने फरमाया कि तीर्थकंर धर्म तीर्थ का निरुपण करते है। चारों धर्म तीर्थ तिराने वाले है । जो जीव को तारे वही धर्म श्रेष्ठ होता है | जीवन पर्यन्त पालन करने वाला अणगार धर्म और गृहस्थ में रह कर पालने वाला आगार धर्म है। अणुव्रत आत्मा को सुरक्षा देते हैं अनेक पापों से छुटकारा दिला कर सदगति की ओर ले जाते है। चौथा व्रत ब्रहमचर्य व्रत यानि जो धर्म आत्म गुणों में रमण कराये। ब्राह्मण’ शब्द की उत्पत्ति भी ब्रहमचर्य से हुई। 50-55 की उम्र होते ही गृहस्थाश्रम को छोड़ वन की ओर प्रस्थान करते है।
साधु-साध्वी जीवन पर्यन्त के लिए ब्रहमचर्य का पालन करते हैं और श्रावक श्राविका स्वस्त्री, स्वपुरुष की मर्यादा करते लाचारी, मजबूरी, मुर्च्छित अवस्था में किसी प्रकार का दोष लग जाये तो आगार, प्रयश्चित लेकर शुद्धिकरण करे। सेवा चर्या का आगार और कुशील सेवन का त्याग अचौथे व्रत मे कराया जाता है। गरिष्ठ भोजन, विगय की मर्यादा करनी चाहिए जिससे कामुक भावनायें वश में रहेगी | धन सम्पत्ति यदि बिना आसक्ति भावना के संग्रह की जाये तो वह परिग्रह नहीं कहलाता। जैसे भरत चक्रवर्ती जिन्हें अपने राज पद के ऐश्वर्य पर आसक्ति नही थी इसलिए उन्हें केवल दर्शन व केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
संचालन करते हुए ज्ञानचंद कोठारी ने बताया कि हम सभी गुरूदेव के द्वारा श्रावक के बारह व्रतों पर सरल भाषा में प्रवचन सुन रहे हैं। सुन कर जीवन में उतार कर आत्मा का कल्याण कर सकते है