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सुंद
ेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप मे जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- श्रावक जीवन के अलंकार स्वरुप प्रत्येक श्रावक को प्रतिवर्ष वार्षिक ग्यारह कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। इन कर्तव्यों में संघ पूजा का प्रथम कर्तव्य हैं ।
संघ यानी साधु -साध्वी ,श्रावक और श्राविका जो धर्म की आराधना में तत्पर होकर आत्म कल्याण के मार्ग पर अग्रेसर हैं । जैसे तीर्थंकर वंदनीय और पूजनीय हैं , वैसे ही उनके द्वारा स्थापित संघ भी वंदनीय और पूजनीय हैं ।
स्वयं तीर्थंकर परमात्मा भी समवरण मे बैठते समय “नमो तित्थस्य ” कहकर श्री संघ को नमस्कार करते हैं । अतः हमे भी शक्ति अनुसार श्रीसंघ की पूजा भक्ति करनी चाहिए। दुसरा कर्तव्य साधर्मिक भक्ति हैं । साधर्मिक अथात् जो समान व्रत नियमो के पालन करते हो। उनकी भक्ति कर शक्ति संपन्न श्रावको को आर्थिक स्थिति से कमजोर श्रावको की भक्ति करनी चाहिए। तीसरा कर्तव्य हैं:- यात्रा त्रिक ।
तीन प्रकार की यात्रा में अष्टाह्निका यात्रा , रथयात्रा और तीर्थयात्रा के कर्तव्य हैं । परमात्मा की भक्ति के स्वरुप आठ दिनो का महोत्सव करना अष्टान्हिका यात्रा हैं । भव्याति भव्य रथयात्रा का आयोजन एवं छ:री के पालन पूर्वक तीर्थ यात्रा का आयोजन करना चाहिए।
तीर्थ की यात्रा के द्वारा आत्मा के भवभ्रमण की यात्रा का अंत होता हैं । अतः आशातनाओ के निवारण के साथ तीर्थो की यात्रा अवश्य करनी चाहिए। चौथा कर्तव्य स्नात्र महोत्सव जिसमे परमात्मा के जन्म के बाद होने वाले जन्माभिषेक का शक्ति अनुसार अनुकरण करना चाहिए।