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ज्ञान वाणी

तीर्थंकर बनने की पहली शर्त है, नई शुरुआत : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

तीर्थंकर बनने की पहली शर्त है, नई शुरुआत : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. शनिवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने सामायिक सूत्र में बताया कि लोगस्स के पाठ में तीर्थंकर परमात्मा के बारे में बताया।
लोगस्स का पाठ और नमुत्थणं का पाठ दोनों में ही तीर्थंकर की स्तुति है। तीर्थंकर का व्यक्तित्व, सामथ्र्य और अस्तित्व का सुंदर चित्रण है। अपने जीवन में सफल, समाधान व संतुष्ट रहना हो तो नमुत्थण का पाठ उनके लिए आदर्श है।

धर्म ही तीर्थंकर है। जीवन में जितनी समस्याएं आती है सब अधर्म के कारण। कर्म की समस्याओं का समाधान व्यक्ति करने का प्रयास करता है लेकिन बिना धर्म के वह समस्या बन जाती है। जीवन में धर्म का तीर्थ बनाना बहुत कठिन है। जहां से समस्या का समाधान मिलता है उसे तीर्थ और जहां समाधान समस्या में बदल जाए उसे अनर्थ और व्यर्थ कहते हैं। संसार की पूरी सस्याओं से बाहर निकालने की तकनीक बताना, बोध कराना और समाधान कराना उस शिखर पर जहां समस्याएं छू न सके ऐसे समर्थ बनना ही तीर्थंकर है।

जिसको भी नई शुरुआत करनी होगी, वे स्वयं दीक्षित होते हैं। तीर्थंकर भगवंत पुरानी परंपरा में नहीं चलते, उसे छोड़कर चलते हैं। हर युग की समस्याएं, भाषा, समाधान अलग होते हैं। हमेशा नई शुरुआत ही करनी पड़ती है। तीर्थंकर बनने की पहली शर्त है- नई शुरुआत। दूसरों को समाधान दाता बनना है।

विज्ञान में नई खोज को ही मान्यता दी जाती है लेकिन धर्म में हम पुरानी मान्यताओं पर ही चलते हैं, इसीलिए विज्ञान प्रगतिशील है और धर्म में हम वहीं पर ही रह गए हैं।

आचारांग सूत्र में कहा गया है कि ऐसे तीर्थंकर जो धर्मतीर्थ हैं, जो सर्वज्ञ हैं, उन्हें मैं अरिहंत कहता हंू और उनका मैं कीर्तन करता हंू। इस तरह मस्ती से अपने आराध्य, गुरुदेव का कीर्तन या भक्ति करें कि आपकी मस्ती देखकर दूसरे भी आपसे जुड़ जाएं।


जिन्हें तीर्थंकर परमात्मा का विस्मरण नहीं होता है, उन्हें उनकी ऊर्जा का अहसास होता है। आचार्य मानतुंग के पास जब तीर्थंकर की शक्ति आ सकती है तो अपने पास क्यों नहीं आ सकती, उसे प्राप्त करने के लिए अपने मन से गलत धारणा निकालनी होगी। इन्हीं कुतर्क और धारणाओं के कारण ही समाज भटक रहा है।

जब किसी के बारे में हम पूरा जानते हैं, तब उनके विषय में मन में अहोभाग आए, भक्तिभाव आए तो मन की भावना शक्ति बन जाती है। पहले कीर्तन करें और वंदन और उसके बाद अर्चना और सेवा करना चाहिए। जो लोक में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हैं, वे उत्तम सिद्ध हैं।

समाधि के लिए सबसे जरूरी है- स्वस्थ शरीर व चेतना का आयोग्य, उपयोग की समझ और मन की एकाग्रता और तल्लीनता। ये तीन बातें होंगी तो ही आरोग्य, बोधि और समाधि का लाभ प्राप्त होगा। ऐसे तीर्थंकर परमात्मा जो चंद्र, सूर्य और सागर से भी गंभीर है। पूरे लोग में उनका प्रकाश है उसमें डूबते हुए, चंद्र से ज्यादा सौम्य और सूर्य से ज्यादा प्रकाशमान है।

तीर्थंकर स्वयं तिरते के साथ औरों को भी तिराते हैं। वे मुक्त होते हैं और मुक्त कराते हैं। जहां से भी लोगस्स के पाठ को आप ग्रहण करेंगे। जैन धर्म में व्यक्ति को सबसे पहले अभय देना चाहिए। फिर उसे दृष्टि देना चाहिए। फिर मार्ग की समझ देनी चाहिए। फिर उसे आश्वासित करना चाहिए। फिर उसे चैतन्य देना चाहिए और फिर उसे धर्म देना चाहिए।

जिंदगी के तीन कांटे कहे गए हैं चींटिंग, गलतफहमी और नियाना। परमात्मा कहते हैं कि इन तीनों को तुमने स्वयं ही बनाया है और तुम ही दूर कर सकते हो।

सूर्य डूबने से पहले रास्ता जितना पार करना है कर लें उसके बाद चलना मुश्किल है। यह जानते हुए भी भोग छूटते नहीं हैं। क्योंकि यह कांटा दूसरा कोई नहीं निकाल सकता है, इस नियाना के कांटे को स्वयं ही निकालना पड़़ेगा। गलतफहमी एक बार हो गई तो उसे कोई दूसरा दूर कर ही नहीं सकता है, उसे स्वयं ही दूर करना पड़ता है। इन तीनों में स्वयं का ही नुकसान होता है।

परमात्मा कहते हैं कि जिससे कभी काम बनता है, उससे कभी बिगड़ भी जाता है और बिगड़ऩे वाले से सुधर भी जाता है, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इन्द्रभूति गौतम से समझने वाला व्यक्ति परमात्मा के पास आकर भी नहीं समझ पाया। इसके लिए अपनी मानसिकता को सख्त न होने दें। इसे ध्यान में रखोगे तो ही अन्तर की शांति बनी रहेगी। जिन पर मोह का आवरण होता है वह यह देखता नहीं, वह उलझता जाता है, परमात्मा, धर्म और संयम मिलने पर भी कोई व्यक्ति ग्रहण नहीं कर पाते हैं।

रहस्य को रहस्य स्वीकार करोगे तो शांति बनी रहेगी। मिलने पर भी कई बार राज प्राप्त नहीं होता है। परमात्मा ने कहा है कि निर्णायक भाषा बोल सकते हो लेकिन निश्चयकारी भाषा का उपयोग न करें।
श्रेणिक चरित्र में बताया कि एक दिन नन्दीसेन का नौ जनों को तो दीक्षा दे देते हैं लेकिन दसवां व्यक्ति तैयार नहीं होता है और आहार ग्रहण न करने से वह गणिका उन्हें दसवां व्यक्ति स्वयं ही बनने का कह देती है। नन्दीसेन को संयम का बोध होता है और वे वहां से चलने को तैयार होते हैं। गणिका व उसका बच्चा उसे रोकते हैं और बच्चे के कारण वे सात वर्ष रुकने का कहते हैं और अपना नियम पूरा करते रहते हैं। समय पूरा होते ही परमात्मा के पास जाकर आलोचना कर और दुष्कर तप करते हुए पहले देवलोक में गए और मोक्ष को प्राप्त करने का रास्ता प्रशस्त कर लिया।

राजा श्रेणिक का बेटा कोनिक अपने भाईयों को साथ मिलाकर श्रेणिक को जेल में डाल देता है और यातनाएं देता है। श्रेणिक के तीर्थंकर नामकर्म का बंध होने के कारण दुश्मन के प्रति भी दुश्मनी का भाव नहीं आया। इसलिए जिस लेश्या में अंतिम श्वास लेते हैं उसी में पुन: जन्म होता है। रानी चेलना कोनिक से बचकर पति की सेवा करती थी। एक बार अचानक कोनिक आता है चेलना से मिलने और उसे रोते देखता है। पुछने पर कहती है कि मैं तो तुझे जन्म भी नहीं देना चाहती थी लेकिन जिस बाप ने तेरे जन्मने से पहले भी अपना कलेजा दिया औरर तुम्हारी सारी इच्छाएं पूरी की, ऐसे पिता को कैद किया। उसकी धिक्कार सुनकर वह श्रेणिक की बेडि़य़ां तोडऩे के लिए जाता है। श्रेणिक सोचता है कि मुझे मारने के लिए आ रहा है और बेटे को कोई पितृहन्ता न कहें इसलिए वह अपनी अंगूठी से वहीं अपने प्राण छोड़ देता है और कोनिक रोता ही रह जाता है।

16 अक्टूबर से आयंबिल ओली की आराधना का कार्यक्रम शुरू होगा। कार्यक्रम में तपस्या करने वाले तपस्वी का सम्मान किया गया और उपस्थित सभी जनों ने अनुमोदना की।

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