नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि आत्म बन्धुओ आत्मा में अनन्त बल है उसी प्रकार पुद्गल में भी अनन्त बल है । दोनों का सदुपयोग किया जाये तो ये बल सार्थक होता है। दस बल प्राण है और उनका सदुपयोग करने के लिए तप आवश्यक है यदि तप नही जाये तो इन्द्रियों के दस बल प्राण में विकार उत्पन्न हो जाते है। तप से ही विकारों को शान्त किया जा सकता है। मक्खन को जैसे तपा कर घी बना दिया जाता।
यदि नही तपाया तो उसमें कीड़े उत्पन्न हो जाते। वैसे ही यदि तप से शरीर को नही तपाया तो बल प्राणों में विकार उत्पन्न हो जाते है। जैसे -2 तप बढ़ता मन शान्त होता जाता है। शरीर क्षीण हो जाता है, ईन्द्रयाँ भी क्षीण हो जाती है। इन्द्रियों के क्षीष होने से उनमें विकार भी नही उत्पन्न होते है। तपस्या है तो ब्रह्मचर्य व्रत भी पालन किया जा सकता है। इसलिए जिनेश्वर भगवान ने विगय दूध, दही, घी, नमक आदि का त्याग करने को कहा है। विगय त्याग से रसनेन्द्रीय वश में हो जाती है जिससे शरीर भी वश में हो जाता है तब ब्रहमचर्य व्रत पालन में सहजता आती है। स्त्री अन्नलक्ष्मी है, सरस्वती है घर के सभी कार्य स्त्री के अधीन है।
करोड़ पति व्यक्ति भी पत्नी के आगे थाली मांडता है कि भोजन परोसो । पत्नी के चले जाने पर पुरुष को उसका महत्व पता चलता है। इसी प्रकार माता पिता का संयोग जिसे मिलता है उसे उनके उपकार का मोल नही करते जिसके माता पिता नही है उन्हें उनका मोल पता चलता है। माता पिता का आदर न करने वाले जब स्वयं माता पिता बनते है और खुद का निरादर होने पर उन्हें अपनी गलती का अहयास होता है। क्योंकि बच्चे तो अपने माता पिता व बड़ो से ही सीखते है इसलिए आप जो दोगे वही पाओगे।
इसलिए माता पिता स्वयं मधुर बोलगे, बड़ो का आदर करेगे तो उनके बच्चे भी मधुर बोलेंगे, बड़ो का आदर करेंगे।
जितना शरीर में रक्त मांस बढ़ेगा उतने इन्द्रियों में विकार उत्पन्न होंगे इसलिए यदि ब्रहमचर्य व्रत का पालन करना है तो शरीर का बल घटाना होगा जितना शरीर का बल घटेगा उतना ही आत्मा का बल बढ़ेगा जितना आत्मा का बल बढ़ेगा उतना ही धर्म ध्यान बढ़ेगा जितना धर्म ध्यान बढ़ेगा उतना जीवों के प्रति अनुकम्पा बढ़ेगी जितना ज्यादा अनुकम्पा भाव बढ़ेगा, विवेक जितनी ज्यादा घर में तपस्या होगी उतने ही विकार शान्त होंगे ।
जितने विकार शान्त होंगे उतनी ही घर में शान्ति समाधि बढ़ेगी। जैन व्यक्ति अपने जैन के चिन्ह को देखता है किस स्थान पर जाना है जबकि लोक का चिन्ह देखकर ये चिन्तन करना चाहिए हमे लोक में किस स्थान में जाना है। अच्छी सद्गति प्राप्त करने की इच्छा करनी चाहिए। भगवान कहते है जिनवाणी श्रवण करना ।
संयम बढ़ेगा उतनी ज्यादा कर्मों की निर्जरा होगी। अर्थात लोक के आकार रुपी चिन्ह को देखता है पर ये विचार नही करता इस लोक रूपी चिन्ह हमें अगीकार करना मोक्ष मिलना दुर्लभ है पर अनुत्तर विमान के देव वहाँ से आयुष्य पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हो कर संयम अंगीकार कर मोक्ष की अग्रसर होते है। अनुत्तर विमान वाला जीव भी वैराग्य भाव में ही रहता है सब भोग होने पर भी भोगने की कामना नही होती सिर्फ मोक्ष की प्रबल इच्छा रहती है जिससे वे एक भव अवतारी बनते है। यह जानकारी ज्ञानचंद कोठारी ने दी।