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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- पर्वाधिराज महापर्व में अठ्ठम का तप अवश्य करना ही चाहिए। तप के सेवन से देह की ममता का त्याग , रसनाजय तथा कषायों पर विजय प्राप्त होती हैं । देह , ममत्व , त्याग , रसनाजय तथा कषायजय से कर्मक्षय होता है और कर्मक्षय से आत्माशुद्धात्मा बन, अजरामर मुक्तिपद प्राप्त करती हैं ।
स्वदेह में ही आत्मबुद्धि के कारण मिथ्यात्व से ग्रस्त आत्मा देह की पुष्टि के लिए हिंसा अहिंसा का विचार नहीं करती हैं, पुण्य – पाप का विवेक नहीं करती हैं । मात्र स्वदेह में ही आसक्त दूसरे के सुख – दुख का लेखा भी विचार नहीं करती हैं । इस प्रकार अनेकाविध पापों के आचरण द्वारा आत्मा नए-नए कर्मों का अर्जन करती हैं और संसार के बंधनों में घिरकर अनेकाविध दुख का अनुभवन करती है ।
जब सद्गुरु के समागम से सन्मार्ग की प्राप्ति होती हैं और आत्मस्वरुप का ज्ञान होता हैं तब आत्मा मिथ्यात्व रोग से मुक्त बनती हैं । इस प्रकार आत्मा के शुद्धात्म स्वरुप के बोइ से देह और आत्मा की भिन्नता का भी ज्ञान होता हैं ।