Sagevaani.Com/चेन्नई. श्री सुमतिवल्लभ नोर्थटाउन श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ में नवपद के अंतिम दिन तप पद के ऊपर विवेचना करते हुए आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने कहा कि दबी हुई समर्थता को उभारने के लिए तप एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। वह कष्ट साध्य तो है पर उसके द्वारा होने वाले लाभों को देखते हुए महत्ता इतनी बड़ी है की उसे घाटे का सौदा नहीं कह सकते। व्यामशाला में किया हुआ तप पहलवान बनाता है।
पाठशाला में तप करने वाला विद्वान बनता है। खेत का तपस्वी सुसम्पन्न कृषक बनता है। पत्थर को प्रतिमा, काग़ज़ को चित्र बना देने की क्षमता मूर्तिकार के, चित्रकार के तप में सन्निहित है। वे आगे बोले की जैसे लौकिक जीवन में पग-पग पर कठोर श्रम, पुरुषार्थ, साहस, मनोयोग की महत्ता स्पष्ट है। अध्यात्म क्षेत्र में भी यही तथ्य काम करता है। तपस्वी शक्तिशाली बनते हैं और उस तप साधित शक्ति के आधार पर शाश्वत सुख के भोक्ता बनते हैं । मनुष्य के भीतर बहुत कुछ दिव्य, अलौकिक एवं अद्भुत है। उसके उत्खनन के लिए तपश्चर्या अनिवार्य है।
प्रकृति ने विभूतियों का भंडार मानवी कलेवर में भर दिया है, पर उससे लाभान्वित होने का अधिकार उसी को दिया है जो तप साधना द्वारा अपनी पात्रता सिद्ध कर सके। समुद्र में अनादि काल से अगणित रत्न भरे पड़े हैं पर उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरे में गोता लगाने का साहस करना पड़ता है। कठोर परिश्रम से ही अमूल्य रत्नो की प्राप्ति सहज होती है। जो तप की कष्ट साध्य प्रक्रिया को देखकर डरा, या घबराया उसके लिए विभूतियों ने अपना द्वार बंद ही कर दिया है। सहज ही सब कुछ प्राप्त करने का स्वप्न देखते रहने वाले व्यक्ति ख़ाली हाथ ही रहते हैं।
हमें अभीष्ट उद्देश्य के लिए तपस्वी बनने का प्रयत्न करना चाहिए और इस मान्यता को दृढ़तापूर्वक ह्रदयंगम कर लेना चाहिए की भौतिक उन्नति के लिए जिस प्रकार कठोर श्रम और प्रचंड साहस की, एकाग्र मनोयोग की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार आत्मिक विभूतियाँ प्राप्त करने के लिए तप साधना की अनिवार्य आवश्यकता रहती है। जो इस मूल्य को चुका सकते हैं वे ही शक्तियों और सिद्धियों से सम्पन्न होते हैं।जैसे बीज का तप वृक्ष के रूप में परिणत होता है। मनुष्य का तप उसे पुरुष से पुरुषोत्तम -आत्मा से परमात्मा बना देता है।