चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा कि तप के तीन भेद हैं तामसिक तप, राजसिक तप और सात्विक तप। तामसिक तप वाला हिंसा से भरा हुआ है। राजसिक तप वाला सम्मान की आकांक्षा से भरा हुआ है। सात्विक तप वाला साधना में लीन होता है तो परमात्मा का आकांक्षा से भरा है।
सदियों से मनुष्य की ऊर्जा अधोगति की ओर बह रही है। जीवन की अग्नि नीचे की ओर बह रही है। अग्नि को ऊपर ले जाने के लिए साधन नहीं साधना चाहिए। यंत्र नहीं, मंत्र चाहिए। पदार्थ नहीं परमात्मा चाहिए। ध्यानाग्नि कुछ नहीं मांगती। हमारी आदतों ने स्वभाव को दबा दिया है। आदतों के पत्थर चेतना के ऊपर पर्वतों की तरह खड़े हैं। आदत हमारी मालिक बन गई है। वो हमें आदेश देती है और हम पालन करते हैं।
सम्यक तप का अर्थ है स्वभाव को खोजो, स्वभाव में जीओ। मिथ्या तप का अर्थ है विभाव में जीओ। पदार्थ मांगो, पद मांगो। प्रशंसा के पीछे भागो। स्वर्ग को मांगो, निदान बंध करो। सूरज के नमन का अर्थ है मुझे भी भीतर के सूर्य को जगाना है। मुझे अंधकार से उजाले की ओर ले चलो। हिंदुओं के सभी देवी देवता नदियां, पहाड़, पेड़ और अग्नि है। उनमें देवत्व को पहचाना गया है।
अनुकूलता-प्रतिकूलता में समता धारण किए हुए है। उत्तम तप में मन की पवित्रता, अरिहंत सी समता होती है। तप और अग्रि दो शब्द है। अग्नि के तीन गुण है ऊध्र्वगामी लपटें आत्मा का स्वभाव ऊध्र्वगमन है। अशुद्ध मल को जलाती है शुद्ध चेतना बच जाती है । धर्म का प्रतीक बन जाती है। हवन विधान में अग्नि साधना में 11 वर्ष तक उपवास, अनशन किया। वे प्रतिदिन देह और आत्मा को पृथक करते रहे। उपवास के माध्यम से जीवन की वास्तविकता का पता चलता है इसलिए इसे तप के अंतर्गत रखा गया है।