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तप के अंदर त्याग की भावना अंगूठी में हीरे के समान है: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

तप के अंदर त्याग की भावना अंगूठी में हीरे के समान है: आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीजी

किलपाॅक श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ में विराजित योगनिष्ठ आचार्यश्री केशरसूरीश्वरजी के समुदाय के वर्तमान गच्छाधिपति आचार्यश्री उदयप्रभ सूरीश्वरजी ने प्रवचन में कहा अपने भाव, विचार अपने मन से निकले हुए हैं। मन परमाणु पुद्गगल से बना हुआ ढांचा है। ज्ञानियों ने कहा है भावना का जो असर हो रहा है वह परमाणु पुद्गल से हो रहा है। यह हमारे मन के चिंतन का भी प्रभाव है। अपनी आत्मा अकेली कुछ नहीं कर सकती। शुभ भाव हमारी आत्मा में रहे हुए हैं।

प्रभु को देखकर मोह की वासना दूर हो तो वह श्रेष्ठ भक्ति है। चारित्र ग्रहण करने के पुण्य में से माता-पिता को आठवां हिस्सा मिलता है। कोई वैरागी आत्मा अपने स्वजन को भूल भी जाए परन्तु उपकार तो स्मरण रखते ही है। वे चेहरे को भूल सकते हैं, उपकार को नहीं। उपकार तो महापुरुष कभी भूलते ही नहीं है। जिनशासन किए हुए उपकारों को भूलने की बात नहीं करता है। दुर्जन का समय, विवाद, व्यसन, व्यापार में जाता है। सज्जन का समय साहित्य, संगति और सम्यक् चिंतन में जाता है। अभिग्रह में वह ताकत है जो विग्रह को मिटा सकता है। तप के अंदर त्याग की भावना अंगूठी में हीरे के समान है। जो व्यक्ति अभिग्रह मजबूती से रखता हैं, वह अभिग्रह उसके निकाचित कर्म तोड़ देता है। तीर्थंकर परमात्मा ने अभिग्रह के बिना पारणा नहीं किया। उन्होंने कहा पचक्खाण आपको पाप से अटका देता है। तप करना सरल है, अभिग्रह करना कठिन है। उत्तरोत्तर तप करना कर्म निर्जरा का कारण बनता है।

आमतौर पर संसारी व्यक्ति को सामग्री व संपत्ति का मोह अधिक पसंद है। ज्ञानियों ने मोह को तोड़ने के लिए बार-बार दान धर्म बताया है। शालिभद्र की ऋद्धि तिराने वाली थी क्योंकि वह सन्मार्ग पर उपयोग होती थ। उन्होंने कहा यदि आप संपत्ति को सन्मार्ग पर नहीं ले गए तो वह दुर्गति के मार्ग का कारण बन सकती है। ग्रह कितने भी अच्छे हो परिग्रह आपको दुर्गति में ले जाता है। जो दान करता है उसको वरदान मिलता है। अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में परिवर्तन करने की ताकत पुरुषार्थ में है। पुरुषार्थ गुरु द्वारा मिलता है। अनुमोदना अंतराय कर्म को तोड़ती है, इसलिए अनुमोदना बार-बार करनी चाहिए। आत्म कल्याण का मार्ग अंत में सुख ही देता है।

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