साध्वी पूनमश्री जी ने आध्यात्मिकता के क्षेत्र में धैर्य और प्रार्थना की उपयोगिता बताई
शिवपुरी। सामान्य तौर पर ध्यान शब्द जीवन में समाधि और समता को व्यक्त करता है, लेकिन भगवान महावीर ने चार प्रकार के ध्यान बताए हैं जिनमें दो अशुभ और दो शुभ ध्यान हैं। वास्तव में किन्हीं भी शुभ और अशुभ परिणामों की एकाग्रता का हो जाना ध्यान है। जहां तक अशुभ ध्यान आर्त और रौद्र ध्यान का सवाल है तो इन ध्यानों से हटकर धर्म ध्यान की यात्रा करना जैन दर्शन में तप की श्रेणी में आता है। उक्त प्रेरणास्पद उद्गार प्रसिद्ध जैन साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने कमला भवन में आयोजित एक विशाल धर्मसभा में व्यक्त किए। धर्मसभा में तपस्वी साध्वी पूनमश्री जी ने आध्यात्मिक क्षेत्र में धैर्य और प्रार्थना के महत्व से उपस्थित श्रोताओं को अवगत कराया।
धर्म सभा के प्रारंभ में साध्वी जयश्री जी और साध्वी वंदनाश्री जी ने सुंदर भजन का गायन कर माहौल को जिन भक्ति से परिपूर्ण कर दिया। साध्वी नूतन प्रभाश्री जी ने अपने उद्बोधन में बताया कि 24 घंटे में से हम अधिकांश समय आर्त और रौद्र ध्यान में रहते हैं। आर्त ध्यान तब आता है जब किसी ईष्ट वस्तु या व्यक्ति का वियोग हो जाता है। किसी रोग का आगमन होता है अथवा पांचों इंद्रियों की जब इच्छा पूर्ति नहीं होती। इससे मन व्याकुल और दुखी हो जाता है।
आर्त ध्यान से आत्मीय गुणों का विनाश होता है। रौद्र ध्यान क्या है? इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि जब व्यक्ति रौद्र ध्यान में होता है तो इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप गुस्सा आता है। झगड़ा करने पर व्यक्ति उतारू होता है। हिंसा की भावना पैदा होती है। अपने दुश्मन को षड्यंत्र में फंसाकर उसे जेल पहुंचाने और हत्या करने तक का विचार आता है। आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान में सभी अशुभ प्रवृत्तियों का एकत्रीकरण हो जाता है। आर्त ध्यान और रौद्र ध्यान में अपनी दुर्दशा के लिए दूसरों को दोषी ठहराया जाता है, लेकिन जब इन अशुभ ध्यानों से हटकर व्यक्ति शुभ ध्यान धर्म ध्यान में जाता है तो उसकी दृष्टि बदल जाती है। वह समझ जाता है कि अपनी दुर्दशा के लिए दूसरा नहीं, बल्कि मेरे खुद के कर्म जिम्मेदार हैं और जब यह भावना आ जाती है तो ना तो रौद्र ध्यान और ना ही आर्त ध्यान रहता है।
जीवन का धर्म ध्यान में समावेश हो जाता है और आर्त ध्यान तथा रौद्र ध्यान से धर्म ध्यान की यात्रा इसलिए तप की श्रेणी में रखी जाती है। धर्मसभा में साध्वी पूनमश्री जी ने बताया कि आध्यात्मिक जीवन में प्रार्थना ईश्वर के पास पहुंचने का एक मार्ग है। यह अंतकरण की पुकार है और श्रद्धा तथा भक्ति के साथ यदि प्रार्थना की जाए तो वह कभी खाली नहीं जाती। प्रार्थना मन के पाप को धोती है और इससे क्रोध, मान, माया, लोभ रूपी कचरा साफ होता है। प्रार्थना से जीवन में अहंकार का नाश होता है। दूसरों के प्रति दया और करूणा के भाव आते हैं। चंचलता को विराम लगता है और परमात्मा से जुड़ाव होता है। धर्मसभा को साध्वी रमणीक कुंवर जी ने भी संबोधित किया।