रायपुरम जैन भवन में विराजित जयतिलक जी मरासा का श्रीपाल चरित्र का विवेचन :- ओली तप में नवपद की आराधना के साथ रसनेन्द्रीय को वश में कर किया जाता है, कषाय, शमन इन्द्रीय दमन के साथ मन को वश जाता है! शारीरिक मानसिक विकार दूर हो जाते हैं तप एक उत्तम साधन है जिससे कर्म की निर्जरा होती है। इस ऋतु के संधि काल में शारीरिक शुध्दि होती है। रक्त की शुद्धि होती है ऐसे समय में, विगय और रस का त्याग करने से रक्त की शुद्धि विशेष हो जाती है।
जैन धर्म में सभी रोगों का एक ही राम बाण ईलाज है तप! आज के युग में तो डाक्टर भी कहते है उपवास कर लो रोग दूर हो जायेगे। हमारे प्रमाद से ही रोग उत्पन्न होता है। तब विवेक रखो रोग दूर हो जायेंगे।
मैनासुंदरी कहती है श्रीपाल जी से सुख दुःख के जो साथ दे वहीं सही अर्थ में अर्दाहगति है! सीता जी ने भी राम जी का वनवास में साथ दिया! बात ही बात मैं और हो गया, सुर्योदय हो गया मुनिराज परठने हेतु जंगल तक आये, मैनासुंदरी ने वन्दन नमस्कार किया मुनिराज ने पूछा तुम यहाँ जंगल में यह क्या कर रही हो। मैनासुंदरी के चेहरे के भाव से मुनिराज को चिन्ता हुई पूछताछ की! मैना ने पूरा प्रसंग मुनिराज को बताया ! मेरे पिता जैन धर्म के मर्म को नहीं जानते इसलिए ऐसा व्यवहार मेरे साथ किया मुनिराज कहते है यह पुरूष रत्न है, थोडे दिनों में यह मर्यादावान राजा बनेगा तू चिन्ता मत कर! मुनिराज कहते है मंत्र, तंत्र, औषधि आदि मुनिवर नहीं बताते किंतु नवपद का ध्यान बताता हूँ जो चौदह पूर्व का सार है। नवपद से बढ़कर संसार में कुछ भी नहीं है। |
अत: इसका ध्यान आराधना करो जिससे तुम्हारा उध्दार हो जायेगा। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य उपाध्याय साधु ज्ञान दर्शन चारित्र, तप, यह नव पद है! अरिहंत :- जिसका संसार में कोई शत्रु नहीं है! बाह्य और आनारिक शत्रु नहीं है सभी के साथ मैत्री भाव है। राग द्वेष के विजेता है। शरण में आये जीव का भला करते हैं। सिद्ध:- अष्ट कर्म से मुक्त अशरीरी है। सिद्ध शिला पर विराजमान है।