किलपॉक स्थित एससी शाह भवन में विराजित उपाध्यायश्री युगप्रभविजयजी महाराज ने प्रवचन में योगशास्त्र की 27वीं गाथा की विवेचना करते हुए कहा कि सत्य वचन की पांच भावना बताई गई है हास्य, लोभ, भय और क्रोध। इन चारों का त्यागकर निरंतर सत्य बोलना चाहिए। पांचवां कारण आलोच्य यानी विचारे बिना जो बोला जाता है। जो इन पांचों भावना को सुरक्षित रखता है वह झूठ नहीं बोलता है। लोभ व क्रोध के कारण मान- माया भी आ जाते हैं। संस्कृत का नियम है प्रथम व अंतिम ग्रहण करते हैं तो बीच वाले भी ग्रहण हो जाते हैं।
उन्होंने कहा कि मुख्यतया क्रोध और लोभ में ज्यादा झूठ बोला जाता है। माया के झूठ में लोभ पड़ा रहता है। माया का मूल लोभ है। नहीं तो फिर, व्यक्ति नोकषाय के कारण झूठ बोलता है। कषाय को उत्तेजित करने वाले को नोकषाय कहते हैं। कभी कभी हास्य के कारण झूठ ज्यादा बोला जाता हैं। ध्यान रहे, हास्य भी किसी के आघात का कारण बन सकता है। हास्य करना है या हंसना है, तो विवेक के साथ हंसो। आज के कमजोर व्यक्ति को कर्मसत्ता कल बलवान बना सकती है। कल्पसूत्र में कहीं भी हास्य का दृष्टांत नहीं आता।
उन्होंने कहा कि संसार में कदम कदम पर धोखा है। संसार में हमेशा बाहर निकालने की चेष्टा ही करते हैं। परमात्मा कहते हैं अंदर आओ। सामने वाला कोई कितना भी धोखा करे, आपको नहीं करना है। जो व्यक्ति धोखा करेगा, उसको ही नुकसान होने वाला है। कई बार धोखा करने पर भी वैराग्य की प्राप्ति हो जाती है। वैराग्य के लिए कोई निमित्त तो चाहिए ही। तपस्वी आत्मा को क्रोध का निमित्त नहीं बनना चाहिए। तपस्वी आत्मा से अंतर से आशीर्वाद लेना चाहिए। तपस्वी का सहायक बनना चाहिए, उनकी भक्ति करनी चाहिए, जो असंभव को संभव बना सकती है। इससे जीवन के अंतराय कर्म टूटेंगे। उन्होंने कहा कि तप से आत्मबल बढ़ता है, इसलिए तपस्वी आत्मा से हाय नहीं लेनी चाहिए। हास्य से की हुई टीका- टिप्पणी के कारण भी कर्मसत्ता कई भवों को बिगाड़ देती है। सत्य को सुरक्षित रखना है तो इन पांच बातों का ध्यान रखना है।