मईलाडुतुरै. यहां स्थित अन्बनाथपुरम चैरिटी वेडिंग हॉल में विराजित आचार्य महाश्रमण ने कहा जीवन में तपस्या का बहुत महत्व है। प्राचीनकाल में बहुत साधु-संतों ने तप किया। वर्तमान में भी कितने ही साधु अथवा गृहस्थ तपस्या में रत हो सकते हैं। मनुष्य की आत्मा कर्मों के आवरण से आवृत्त है। कर्मों के आवरण से आत्मा को मुक्त करने तथा आत्मा के पूर्ण स्वरूप को निखारने का साधन है तपस्या। हमेशा कर्म रूपी मैल को हटाकर आत्मा को निर्मल करने का प्रयास करना चाहिए।
उन्होंने कहा जीवन में सहन करने और कुछ प्राप्त करने के लिए कुछ सुविधाओं का त्याग करने का प्रयास करें। जीवन में आने वाली प्रतिकूलताओं को भी झेलने का प्रयास करें। आचार्यश्री ने तपस्या के भेद को उजागर करते हुए कहा कि मन, वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति ही तपस्या होती है। यह शरीर अनित्य है, धन भी शाश्वत नहीं है तो आदमी को धन और शरीर का नहीं, बल्कि धर्म का संचय करने का प्रयास करना चाहिए। आगे की गति में धर्म ही साथ जाता है।
नवकारसी, पोरसी, प्रहर, उपवास, बेला, तेला आदि अनेक रूपों में अनाहार की तपस्या की जा सकती है। स्वाध्याय को भी तपस्या कहा गया है। आदमी को कुछ समय स्वाध्याय में भी लगाने का प्रयास करें। 24 घंटे में से कुछ समय साधना के लिए निकालें। तपस्या से आत्मा का परिशोधन होता है और आदमी को तपस्या के द्वारा आत्मा के परिशोधन एवं शुद्धिकरण का प्रयास करना चाहिए। इस मौके पर प्रसिद्ध मठ धर्मपुरम आदिनम के वर्तमान मठाधीश के उत्तराधिकारी मासिलमणि देसिगर, स्वामीनाथ शिवाचार्य भी उपस्थित हुए।
आचार्य से वंदन करने के बाद मासिलमणि देसिगर व स्वामी शिवाचार्य ने आचार्य का अभिनन्दन किया और भावाभिव्यक्ति दी। आचार्य ने उनको जैन धर्म और अहिंसा यात्रा के विषय में अवगति दी और साथ ही पावन प्रेरणा देते हुए कहा कि जितना हो सके धर्म और अध्यात्म का प्रसार करने का प्रयास करते रहना चाहिए।
धर्मसभा में आचार्य के स्वागत में स्थानीय सभाध्यक्ष श्रीचंद छल्लाणी व अगरचंद चोरडिय़ा ने भी आशीर्वाद लिया। स्थानीय तेरापंथ महिला मंडल, मूर्तिपूजक जैन संघ के सुमति मंडल ने गीतों का संगान किया। श्री एस.एस.जैन संघ की ओर से मनोज बोहरा ने कवितापाठ किया।