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तपस्या आत्मशुद्धि का महान यज्ञ, अनुमोदना होनी ही चाहिए : आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीजी

तपस्या आत्मशुद्धि का महान यज्ञ, अनुमोदना होनी ही चाहिए : आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीजी
बेंगलुरु। अक्कीपेट जैन संघ में हुए सिद्धितप तपस्या के उपलक्ष्य में पैलेस ग्राउंड में तप अभिनंदन समारोह का आयोजन आचार्यश्री देवेंद्रसागरसूरीश्वरजी के मंगलाचरण से प्रारम्भ  हुआ। कार्यक्रम में सर्वप्रथम तपस्वियों का भव्य वरघोड़ा निकाला गया, जिसमें लाभार्थी परिवार श्रीमती नेमीबाई सरदारमल संकलेचा एवं तपस्वियों ने उत्साह के साथ भाग लिया।
अक्कीपेट जैन संघ के अध्यक्ष शा उत्तमकरन ने सभी का स्वागत किया।  आचार्यश्री ने अपने प्रवचन में कहा कि किसी की प्रशंसा करना यानि उसके अहंकार को बढ़ावा देना है। जिसकी प्रशंसा होती है, वह अपने को अन्य से बड़ा समझने लगता है।
जबकि किसी की अनुमोदना करने से उसका ना तो अहंकार बढ़ता है और ना ही किसी प्रकार की अन्य कोई संतुष्टि उसे मिलती है। मगर किसी की अनुमोदना करने से अनुमोदना करने वाले के “मन के भाव” अवश्य ऊँचे होते हैं और परिणामस्वरूप वह भी “वैसे” ही कार्य करने के लिए “उत्साहित” होता है जैसा कि पहले वाले व्यक्ति ने किया है।
“अनुमोदना” करने से “दूसरे” में कोई कम्पीटीशन करने की भावना कतई नहीं आनी चाहिए। “अनुमोदना” शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्यश्री ने कहा कि बोलने में बहुत सुन्दर, सुनने में बहुत शांतिदायक तथा सबसे महत्त्वपूर्ण ये “पुण्य” उपजानेवाला शब्द है व समाज को प्रेरणा देने वाला है। इसलिए तपस्वियों की प्रशंसा नहीं, बल्कि अनुमोदना ही करनी चाहिए। इस दौरान सभी लाभार्थी परिवारों का बहुमान भी किया गया ।

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