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तन देखने में सुंदर है किन्तु नश्वर है: जयतिलक जी मरासा

तन देखने में सुंदर है किन्तु नश्वर है: जयतिलक जी मरासा

रायपुरम जैन भवन में जयतिलक जी मरासा ने फरमाया कि यह तन देखने में सुंदर है किन्तु नश्वर है। हर जीव को अपना स्वरूप प्रिय लगता है। दिन रात स्वयं को देख देख कर सजता है। किंतु इस शरीर का निर्माण अशुद्धि एवं गंदे पदार्थों से बना है। उस अशुद्धि से व्यक्ति स्वयं घृणा करता है। शरीर के उपर चमड़ी का कवर चढ़ा हुआ है और व्यक्ति दिन रात इसकी सेवा में लगा रहता है। किंतु भगवान ने कहा है कि दूसरो की सेवा तप है वैयावच है। कर्मो की निर्जरा होती है। किंतु स्वयं की सेवा कर्म बंध है। स्वयं की सेवा तो छोटे से छोटे जीव भी कर लेते हैं। स्वयं की सेवा हंसते हो जाती है किन्तु दूसरो की सेवा में वह उल्लास नहीं होता है। माँ को अपनी संतान की सेवा में आनन्द आता है लेकिन नन्हे बालक की सेवा करने में उतना पुण्य अर्जन नहीं होता क्योंकि वह उसे अपना लगता है प्रिय लगता है!

यदि वही माँ दूसरों की संतान की सेवा कर्तव्य भाव से करती है तो उसमे पुण्य का उपार्जन होता है कर्म निर्जरा होती है! कितनी ही सेवा कर लो एक दिन नष्ट हो ही जाता है किंतु ऐसे अशुचिमय शरीर को प्राप्त करने के लिए अनंत पुण्य चाहिए! अति शुभ कर्मो के उपार्जन से यह मानव तन मिलता है किंतु हर क्षण यह शरीर क्षीण होता जाता है! यह तन नश्वर है ऐसे नश्वर शरीर से पुण्य का उपार्जन करना है‌। शरीर से पाप की कमाई आसान है किंतु पुण्य कमाई मुशकिल है! इस शरीर को अच्छे कार्य में लगाओ। पाप और पुण्य दोनों का उपार्जन यह शरीर के द्वारा ही होता हूँ अत: शरीर को शुभ कर्मों में लगा दो! सभी सुखों की प्राप्ती पुण्यवाणी से होती है किंतु सब कुछ मिलने के बाद भोगने का सामर्थ्य भी पुण्य वाणी से ही मिलता है! ज्ञानियों का कथन है पुण्य का उपार्जन त्याग और सेवा से होता है!

इन इंद्रियो को शुभ योगों में लगाओ। व्यक्ति स्वेच्छा से त्याग करता है तो तप है भयंकर कर्मों की निर्जरा करता है। यदि भोग साधनो में संतुष्ट नहीं होता राग द्वेष करता है तो पाप कर्मों का बंध होता है! और भोगने का सामर्थ्य चला जाता है! और उसके बाद त्याग करता है क्या वह कर्मो को रोक सकेगा। किंतु उस त्याग से उसे अकाम निर्जरा होती है सकाम नहीं! असाता वेदनीय साता वेदनीय में बदल जाता है! त्याग करने से जीव को पुण्य का उपार्जन होता है साता वेदनीय उदय में आता है मनोज्ञ भोग उसके अनुकुल बन जाते है! अनुकुलता होने के बाद भी त्याग करता है तो वह तप है जिससे

कर्म निर्जरा होती है। त्याग से जीव को पुण्यानुबंधी पुण्य की प्राप्त होती है। सभी जीवों की दया पालकर साता वेदनीय बंध करता है! अनुकुलता नहीं है और त्याग करता है असाता साता में नहीं बदल जाती है! यदि काया वश में हो जाय तो मन वचन अपने आप वश में हो जाता है। यदि काया की चंचलता नहीं मिटाते है तो यह काया पाप कार्य में लगता है। इस शरीर को शुभ कार्यों में लगा कर सफल बनाओ। ऐसा ही तन बाहुबली के जीव को मिला था। भोगने का के साथ सामर्थ्य था फिर भी संसार के भोगों को त्याग दिया ।

यह जानकारी अध्यक्ष पारसमल कोठारी ने दी।

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