चेन्नई. इच्छाओं का अपना एक संसार है। इच्छाएं भी तितली की तरह रंग-बिरंगी होती हैं। कुछ इच्छाएं स्वस्थ और साफ-सुथरी होती हैं तो कुछ काली-कलूटी। जिन इच्छाओं से स्वहित के साथ विश्वहित का भाव जुड़ा होता है वे इच्छाएं शुभ होती हैं और जिनमें स्वार्थ का मुखौटा बदल-बदलकर प्रकट होता है ऐसी बहुरूपिया इच्छाएं अशुभ होती हैं।
जो अमंगल, अन्याय और अज्ञान की आधारभूमि पर खड़ी होती हैं। एक इच्छा खत्म होती ही नहीं है और दूसरी इच्छा उसका आसन ग्रहण कर लेती है। बचपन में खिलौने शुरू हुई हमारी जीवन यात्रा अर्थी तक पहुंचने को आ जाती है। चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई और बाल सफेद हो गए और सारे अंग ढीले हो गए लेकिन केवल तृष्णा है जो तरुण होती ही जाती है।
यह विषैली तृष्णा जिसे पकड़ लेती है उसके दुख जंगली घास की तरह बढ़ते ही जाते हैं। इच्छाओं की यह अमर बेल प्राणों रूपी वृक्ष पर ऐसे लिपट जाती है कि प्राण लेने के बाद भी यह जन्म-जन्मांतर तक आत्मा का पीछा नहीं छोड़ती। तन अस्वस्थता मन की उपज है। सौ बीमारियों के बीज में हमारी अतृप्त इच्छाएं ही हैं।
आदमी को चाहिए कि वह अपने सपने समेटे और अपनी इच्छाओं का दमन नहीं शमन करे। दमित इच्छाएं तो और भी अधिक खतरनाक रूप धारण कर लेती हैं। तप-त्याग, यम, नियम, आत्मानुशासन और आत्म-परिष्कार के प्रयासों की इच्छाएं सुसंस्कृत होती हंै। मन को मारना नहीं समझाना है। संचालन संघ मंत्री प्रफुल्लकुमार कोटेचा ने किया।