विजयनगर स्थानक भवन में विराजित जैन सिद्धान्ताचार्य साध्वीश्री प्रतिभाश्री जी ने प्रभु स्तुति पर विवेचन करते हुए बताया कि तन्मयता से की गई भक्ति में चमत्कार स्वतः ही हो जाता है। एकाग्रता से की गई भक्ति से लोक परलोक के सभी देवी देवताओं को वश में किया जा सकता है।
हनुमान की राम के प्रति भक्ति,रावण की शिव के प्रति व मीरा की कृष्ण के प्रति भक्ति इसके उदाहरण है। भक्ति भी दो प्रकार की होती है एक राजसी जो पद, प्रतिष्ठा, धन, वैभव या आत्मशांति के लिए की जाती है, दुसरी तामसी भक्ति जो दूसरों का बुरा करने के लिए की जाती है। निस्वार्थ भाव से आचार्य मानतुंग स्वामी ने आदिनाथ की भक्ति में तल्लीन होकर 48 श्लोकों की रचना कर डाली जो आज हर जैनी बड़ी ही श्रद्धाभाव से इन 48 भक्ताम्बर स्त्रोत का नित्य स्मरण करता है। स्तुति करने से ज्ञान,दर्शन व चारित्र की प्राप्ति होती है।
साध्वीश्री दीक्षिता श्रीजी ने आगमों का विवेचन सुनाया। प्रवचन के पश्चात आयोजित संघ के ट्रस्टी नेमीचंद जी आंचलिया की शोक सभा में कहा कि व्यक्ति की मृत्यु सत्य है, व शरीर नश्वर है, जिससे हर जीवात्मा इस चक्र में अपने कर्मो के अनुसार चक्कर लगाती रहती है। व्यक्ति द्वारा किये गए सद्कार्यों से शरीर भले ही क्षय हो जाये पर उसके संघ व धर्म के किये गए सद्कार्यों से वह लोगों के दिलों में सदा जीवित रहता हैं।