*तत्त्व का अर्थ है पदार्थ, पारमार्थिक वस्तु या सत्।*
*तत्त्व शब्द ‘तत्’ शब्द से बना है। संस्कृत भाषा में तत् सर्वनाम शब्द है। सर्वनाम शब्द सामान्य अर्थ के वाचक होते हैं। तत् शब्द में भाव अर्थ में ‘त्व’ प्रत्यय लगाने से तत्त्व शब्द बना है। जैनदर्शन में तत्त्व, सत्त्व, सार, द्रव्य, अर्थ और यथार्थ आदि एकार्थक एवं पर्यायवाची शब्द के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। यहां मूल चार शब्द हैं- सत्, द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ। तत्त्वार्थ सूत्र में ‘सत् द्रव्य लक्षणं’ कहकर सत् और द्रव्य को पर्यायवाची माना गया है। अस्तित्व की दृष्टि से जो मूल वस्तु या द्रव्य है वही तत्त्व है, जिसे हम द्रव्य भी कहते हैं। इनकी संख्या छः है।*
*जैन दर्शन में सत्, तत्त्व, अर्थ, द्रव्य, पदार्थ, तत्त्वार्थ आदि शब्दों का प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में किया गया है अतः ये शब्द एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं। ‘सत्’ शब्द का ऐतिहासिक दृष्टि से विमर्श करने पर यह स्पष्ट होता है कि जैन आगमों में सत् के लिए तत्त्व शब्द का प्रयोग किया गया है। गौतम स्वामी ने भगवान महावीर से पूछा-भंते ! तत्त्व क्या है? भगवान ने कहा-गौतम ! तत्त्व वह है, जो उत्पन्न होता है, नष्ट होता है और ध्रुव (स्थिर) रहता है। इस संवाद से स्पष्ट है कि जैन आगमों में तत्त्व या द्रव्य की सत् संज्ञा नहीं थी। जब अन्य दर्शनों में ‘सत्’ इस संज्ञा का समावेश हुआ तब जैन दार्शनिकों के सामने भी यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि सत् किसे कहा जाए। सर्वप्रथम आचार्य उमास्वाति ने द्रव्य का सत् लक्षण करके इस समस्या का समाधान किया। इसके बाद उत्तरवर्ती अनेक आचार्यों ने भी द्रव्य को सत् के रूप में व्याख्यायित किया।*
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।