भगवान महावीर का कहना है कि अहिंसा मुलक समता ही धर्म का सार है। जोधपुर में चातुर्मास प्रवचन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए उपाध्याय प्रवर रविंद्र मुनि ने लोगों को अहिंसा से प्रेम और हिंसा से बैर करने की सीख दी। उन्होंने बताया कि यहां हिंसा केवल मनुष्यों से ही नहीं बल्कि पशु पक्षियों के साथ भी नहीं होनी चाहिए।
अहिंसा और समता दोनों ही विश्व में शांति का मुख्य आधार हैं। हमें दूसरे धर्म और संस्कृति के प्रति सम्मान की भावना रखनी चाहिए। हिंसा का अंत नहीं है। ज्ञान का अभाव ही हिंसा को बल देता है। आगमकार ने पहले ही कह दिया है कि हिंसा करने वाले व्यक्ति पर कोई विश्वास नहीं करता।
अफगानिस्तान की मौजूदा स्थिति का विवरण देते हुए उपाध्याय प्रवर ने बताया कि वहां अब तालिबान ने कब्जा कर लिया है। तालिबानी सभी को और अन्य देशों के लोगों को यह विश्वास दिलाने में लग गए हैं कि वह पहले जैसे नहीं हैं। वे बताते हैं कि अफगान में उनका मकसद विकास और उन्नति है। लेकिन लोगों को तालिबान के किसी भी बात पर भरोसा नहीं हो रहा है। यही कारण है कि अफगानिस्तान छोड़ लोग दूसरे देशों में पलायन कर रहे हैं।
अफगानिस्तान में डर से महिलाएं घर से बाहर नहीं निकल रही। जो लोग तालिबान के आदेश को नहीं मान रहे उन्हें सरेआम गोलियों से भून दिया जाता है। यहां लोगों को तालिबान पर भरोसा नहीं है इसका कारण तालिबान की हिंसक प्रवृत्ति है। अध्याय प्रवर कहते हैं कि भरोसा अहिंसा से आता है। हिंसा आदमी को डराती है और अहिंसा लोगों में भय खत्म कर दी है। भय खत्म होने से आदमी एक दूसरे को अपना समझने लगता है।
रविंद्र मुनि बताते हैं कि जीवन में संबोधी का बहुत महत्व है और इसका लाभ केवल मनुष्य को ही मिलता है। संबोधी का मतलब ज्ञान की प्राप्ति होती है। यहां अलग-अलग व्यक्ति को ज्ञान प्राप्त करने के लिए अलग-अलग प्रयास करना पड़ता है। संबोधी विरासत में नहीं मिलती, इसे अपने प्रयासों से अर्जित किया जाता है।
जैसे बीती हुई रात वापस नहीं आती वैसे ही गुजरा समय वापस नहीं आता। इसलिए जो समय अपने हाथ में है हमें उसका सदुपयोग करना चाहिए। आयुष कर्म के क्षीण होने पर मृत्यु हरण कर लेती है। इसलिए लोगों को प्रमाद छोड़कर धर्म कर्म करना चाहिए।
मरने के बाद सद्गति सुलभ नहीं है। इसलिये जो कुछ सदकर्म करना है यही कर लेना चाहिए। सदगति में जाना है तो अच्छा कर्म करें, दान करें, सेवा करें, पशुओं की सेवा करें क्योंकि मरने के बाद कुछ भी संभव नहीं है। इसलिए मनुष्य जीवन में ही सब कर्म कर लेना चाहिए।
अपने स्वयं के कर्मों की वजह से विभिन्न प्रकार के सुख दुख भोगने को व्यक्ति को मिलते हैं। हमने जो अच्छे बुरे कर्म किए हैं उसका भोग स्वयं ही भोगना पड़ता है। किए हुए कर्मों को भोगे बिना कोई मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर पाता। हमारा आपका आयुष कर्म समाप्त हो जाता है तब हम इस जग को छोड़ दूसरी दुनिया में चले जाते हैं। मनुष्य को अहंकार कभी नहीं करना चाहिए। सहज रूप से तप-तपस्या करनी चाहिए। मनुष्य का जीवन बहुत ही छोटी अवधि के लिए है इसलिए इसका सही उपयोग करना चाहिए। सही मायने में तप किया जाए तो अनेक भावों के कर्मों को त्यागी तपस्वी नष्ट कर सकता है।