तेरापंथ धर्म संघ के एकादशम अधिशास्ता-शांतिदूत-अहिंसा यात्रा के प्रणेता-महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमण जी ने अपने मंगल प्रवचन में फरमाया कि अहिंसक व्यक्ति वह होता है जो मृत्यु, बीमारी और बुढापे से भयभीत नहीं होता है। व्यक्ति को इनसे भय न रखकर साधना की प्रेरणा लेनी चाहिए। संसार में जो चारों तरफ दुख है उससे छुटकारा पाने के लिए दुख मुक्त होने की साधना की दिशा में आगे बढ़ना पड़ता है।
दुख मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग संयम का होता है और साधु मोह-माया से परे आत्म साधना में रत होकर दुखों से मुक्ति पा लेता है। दुख मुक्ति की साधना के लिए सभी के मन में विचार आते हैं परंतु उन विचारों को संकल्प के साथ साधने से दुखों से मुक्ति पाई जा सकती है। इनके अलावा चतुर्थ डर अपवाद या अपमान का होता है।
उच्च कोटि का अहिंसक वह होता है जो बीमारी, बुढ़ापा, मृत्यु और अपमान के भय से ऊपर उठ जाता है। व्यक्ति अगर एक साथ पूर्ण अभय की स्थिति प्राप्त करने में असक्षम हो तो उसे धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए और मंत्रों का आलंबन के साथ मैत्री की साधना करनी चाहिए। मैत्री की साधना से अभय की साधना स्वतः ही होने लगती है।
व्यक्ति को स्वयं समता धारण करनी चाहिए। दूसरा व्यक्ति अगर बुराई, लड़ाई, झगड़ा करने में तत्पर रहे तो हम स्वयं समता में रहे। स्वयं अगर आवेश में आएगें तो वैर-विरोध और झगड़ा बढ़ेगा। अगर समता में रहने से वैर विरोध भी नहीं होगा और कर्मों का बंधन भी नहीं होगा।
आचार्याबर ने आगे फरमाया कि समता और मैत्री की भावना से अभय का विकास भी अच्छा हो सकता है। मैत्री की साधना से भाव शुद्धि करके व्यक्ति निर्भय हो जाता है। शरीर से मन से वचन से किसी को दुख नहीं देने वाला व्यक्ति आत्मा का दर्शन कर लेता है।
साधु अहिंसक तो होता ही है परंतु उसे भी अपनी अहिंसा की साधना का निरन्तर विकास करना चाहिए। संत वह होता है जो शांत होता है। गृहस्थों को प्रेरणा देते हुए कहा कि गृहस्थ भी जीवन में मैत्री की भावना का विकास करें और शांतिमय जीवन जीने का प्रयास करें।
ऐसा प्रयत्न करें कि उनके मन में किसी के प्रति शत्रुता की भावना ना रहे और मैत्री की भावना से चित् भावित हो जाए। व्यक्ति का ज्ञान ऐसा बढे कि वह व्यक्ति राग से विराग की ओर बढ़े, श्रेयों से कल्याण हो जाए और मैत्री की भावना से अनुरक्त हो जाए। आचार्य प्रवर ने आज से संबोधी ग्रंथ से प्रवचन को विराम प्रदान किया।
प्रवचन में आचार्य महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति की तरफ से कृतज्ञता ज्ञापन के क्रम में राकेश दक, लादूलाल बाबेल, दिनेश मरोठी श्रीमती मधु कटारिया श्रीमती कुसुम डांगी ने अपनी भावाभिव्यक्ति दी। गगन बरड़िया ने मंगल भावना गीत प्रस्तुत किया। भारतीय जैन संघटना के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राजेंद्र लुंकड़ ने अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए वंदन अर्ज किया।