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जो निरंतर कल्याण और उन्नति की ओर ले जाए वही धर्म है : देवेंद्रसागरसूरि

जो निरंतर कल्याण और उन्नति की ओर ले जाए वही धर्म है : देवेंद्रसागरसूरि

Sagevaani.com /चेन्नई. बिन्नी के श्री सुमतिवल्लभ नोर्थ टाउन जैन मंदिर के प्रांगण में पूज्य आचार्य श्री देवेंद्रसागरसूरिजी ने अपने प्रातःकालीन प्रवचन में कहा कि

दीन-दुखियों को देखकर हमारे मन में करुणा और सेवा भाव उमड़े। ऐसा संवेदनशील हृदय जिसके पास है, वही भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ सकता है। इसलिए समर्थ लोगों को दीन-हीनों और असहायों की बढ़-चढ़कर सेवा करनी चाहिए। इस प्रकार से मिला अवसर अपने हाथ से नहीं जाने दें। पूज्य आचार्य श्री आगे बोले कि प्रेम बंधन है, लेकिन लादा गया नहीं, स्वीकार किया हुआ। इसलिए वह बंधन प्यारा लगता है। प्रेम बांधता नहीं, बल्कि स्वयं बंधता है। व्रत इत्यादि, मन और इंद्रियों के संयम के लिए है। बिना संयम के अध्यात्म पथ पर आगे बढ़ना कठिन है। कुछ समय के बाद संयम सहज हो जाता है।

सद्बुद्धि, मन की शुचिता और व्यवहार की शालीनता महान व्यक्ति की पहचान है। संतोष से शांति, शांति से सुख और सुख से जीवन में सादगी आना सच्ची संपन्नता है। अभिमान की भूमि में पाप के पौधे पलते हैं और दया की जमीन पर धर्म। दया ही मनुष्य को देव बनाती है। जिस दिल में दया का निवास नहीं, वहां क्रूरता धीरे से अपना डेरा जमा लेती है। इसलिए भक्त परमात्मा के प्रति दीनता और प्राणीमात्र के प्रति दया से युक्त होता है। स्वभाव में उदारता, वाणी में मधुरता, मन में निर्मलता, व्यवहार में स्वच्छता, जीवन में कर्मठता आदि मूल्य से युक्त व्यक्ति ही वास्तव में धनवान है। जो निरंतर कल्याण और उन्नति की ओर ले जाए वही धर्म है।

शारीरिक सुख में कहीं न कहीं पराधीनता है, परंतु आत्मिक सुख स्वाधीन ही है। धर्म मानकर चलता है और विज्ञान चलकर मानता है। दोनों की सोच अलग-अलग है। जिस प्रकार विज्ञान का अपना धर्म है, उसी प्रकार से धर्म का भी अपना विज्ञान है। जिस समय धर्म अपने विज्ञान को भूल जाएगा, उस दिन वह खोखला कर्मकांड ही रह जाएगा। उसी प्रकार से विज्ञान अपने धर्म को भूला, तो फिर वह विकास नहीं विनाश अधिक करेगा।आचार्य श्री ने ये भी कहा की त्याग का सामर्थ्य इंसान को स्वामी बनाता है। त्याग से अमृत प्राप्त किया जा सकता है।

जीवन में त्याग की भावना रखो। शोक के चलते आनंद नहीं, मोह के चलते सुख नहीं और भय के चलते शांति नहीं। चाहता हर व्यक्ति आनंद, सुख और शांति ही है, लेकिन जीवन में भूत का शोक, वर्तमान का लोभ और भविष्य के भय चलते वह आनंद, सुख, शांति से वंचित है। शरीर की विस्मृति हो जाए, तो आप स्वस्थ हैं। रोग के चलते ध्यान शरीर में ही रहता है। फिर वह रोग शारीरिक हो या सांसारिक। ज्ञानी देह से ऊपर उठकर मुक्त होता है। प्रेमी, भक्त देह को भूलकर प्रभु से युक्त होता है। सफलता स्थायी नहीं और विफलता अंतिम नहीं। जीवन में प्रयत्नशील बने रहो। मनुष्य ही है, जो जिंदगी में जिंदगी को छोड़कर और सारी चीजों को महत्व देते हुए जिंदगी को खो देता है।

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