कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा जो दूसरों को दुख देता है वह अपने लिए दुख निर्मित करता है। दूसरे को सुख देना स्वयं को ही सुख देना तथा दूसरे को सजा देना खुद को ही सजा देना है। तुम्हारे बंधन और मुक्ति में तुम्हारे अतिरिक्त कोई और नहीं है। तुम जो भी करोगे अपने ही लिए करोगे यही धर्म का सार है।
कभी ऐसा न हो पंथों का निषेध करने में परमात्मा का ही निषेध हो जाए। साधु निंदा अपनी ही निंदा है एवं साधु की प्रशंसा स्वयं की प्रशंसा है। साधु और पंथ की निंदा करने में स्वयं का परमातम ही छूट जाए। उससे बचना है जो मंदिर में छिपा है। उसे बचाना है जो मूर्ति में छिपा है। उसे छिपाना है जो स्वयं में छिपा है।

जीव की हिंसा स्वयं की हिंसा एवं जीव पर दया खुद की दया के समान है। इसीलिए संत प्रेमी आत्महितैषी पुरुष कभी किसी जाति-पंथ-संत की निंदा नहीं करता। जब भगवान का विचार होता है तो ऐसा लगता है परमात्मा कोई व कहीं ओर है। जब स्वयं पर विचार करते हैं तो लगता है परमात्मा स्वयं है और स्वयं ही उसे प्रकट करना है। फिर आत्मा से दूरी पैदा नहीं होती और दूसरों में भी परमात्मा नजर आने लगता है।