पुज्य जयतिलक जी ने प्रवचन में फ़रमाया कि जो तारता है उसे तीर्थ कहते हैं! संसार का परिभ्रमण मिटा दे! आत्मा के कलिमल को मिटाकर स्थाई स्थान पर बैठा दे । 4 स्थान के जीव भव सागर के पार उतरता है! साधु और साध्वी दोनो एक दूसरे तीर्थ के पूरक है! जैसे एक पाट के चार पाये है चारों समान है ऐसे ही साधु साध्वी, श्रावक, श्राविका में समानता ! दोनों का लक्ष्य है तिरना। किंतु भवसागर से किंतु साधु श्रावक में क्षमता की भिन्नता है! यदि श्रावक नहीं तो साधु का साधुपना पालना कठिन है वैसे ही साधु नहीं हो तो, श्रावक का श्रावक का पालना कठिन है! एक दूसरे के आलंबन है!
साधु जीवन का अभ्यास करने के लिए श्रावक 48 मिनट की सामायिक का अभ्यास करता है। 8 पापों का त्याग करता है! श्रावक से भूल चूक संभव है इसलिए भगवान ने अनुमोदन खुला रखा है! किंतु उसमें भी विवेक रखे। उन्नति करते हुए दसवें व्रत में तप की शुरुआत हो जाती है। 14 नियम के साथ और भी प्याग करता है। और उत्कृष्ट भाव आते है तो प्रतिपूर्ण पौषध के भाव आते है! आत्म संयम के साथ एक अधोरात्री संयम का अनुभव करता है! वह पूर्ण रूप से अहिंसक बन जाता है। 11वें व्रत के पांच अतिचार बताए है।
1) अपडिलेहिय दुपडिलेहिय सेज्जा संथारे- संय्या संस्तारक को देखा न हो या अच्छी तरह से न देखा हो! सूक्ष्मता से प्रतिलेखन का विधान है! 2) अप्पमजिय दुप्पमजिय सेज्जा संथारे.. सय्या संस्कारक पूंजा न हो या अच्छी तरह से न पूंजा हो! तीनो गुप्ति का पालन करते प्रकाश में प्रतिलेखन करना! प्रतिलेखन करने से जीव दया का पालन होता है! मच्छर दानी का प्रयोग अवश्य करे! निराबाध पौषध कर सकते हैं।
3. अप्पडलोहिया दुप्पडिलोहिय उचार पवासवध भूमि: :- मलमूत्र आदि परठने की भुमि देखी न हो। जल्दी सूखे ऐसे स्थान पर परठना! विवेक रखे! स्थान की प्रतिलेखना करो।
4. अप्पमजिय दुप्पमजिय उच्चार पासवन भूमिः – मल मुत्र आदि परठने की भूमि पूंजी न हो या अच्छी तरह से न पूंजी हो।
5. पोसहस्स सम्मं अणाणु पालण्या:- उपवास युक्त पौषध का सम्यक प्रकार से पालन न किया हो! पौषध में जितने क्षेत्र की मर्यादा हो उतने क्षेत्र मे ही
आना जाना कल्पता है। एकान्त रूप से आत्म ध्यान करे! लेने पारने की विधी सामायिक के समान ही बस पाठ का अन्तर है!
बारहवाँ अतिथि संविभाग व्रत:-, जिनके आने की कोई तिथि नहीं वो अतिथि है। आपके घर में जो आहार पानी बना है उसका सेवन करना। उसमें से एक हिस्सा निकाल कर अतिथि को रखें। क आहार निर्दोष एषणीय, कल्पनीय हो! कल्पनीय:- सूझता आहार लें! वापरने योग्य द्रव्य से लाभ लो। एषणिय:-जो योग्य हो। साताकारी हो ऐसा आहार बहरावे। प्रासुक-अचित पदार्थ बहराये!
निर्दोष- जिस आहार को लेने से कोई दोष न लगे! 16 उदगम 16 साधु के इस तरह 32 दोष लगते है 10 दोनों के मिलाकर लगते है!5 मॉडल के दोष! ऐसे 47 दोष टालकर मुनिराज आहार ग्रहण करते है। 14 प्रकार के द्रव्य साधु को बहराये जाते है। कुछ मुनिराज के पास स्थायि रूपी रहते है जैसे पात्र रजोहरण, आदि कुछ अस्थाई रूप से जैसे पाट शय्या आदि। सभा में आठवें, नवमे, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें अणुव्रत के पच्खान करवाए गये!
मंत्री नरेंद्र मरलेचा ने बताया कि श्री एस एस जैन ट्रस्ट, रायपुरम द्वारा सामूहिक विदाई समारोह जैन भवन रायपुरम में 6-11-2022 रविवार सुबह 9.30 बजे होगा।