Share This Post

Featured News / Featured Slider / ज्ञान वाणी

जैसी संगत वैसी रंगत: जयतिलक मुनिजी

जैसी संगत वैसी रंगत: जयतिलक मुनिजी

Sagevaani.com @ नार्थ टाउन में विराजमान गुरुदेव जयतिलक मुनिजी फरमाया कि आत्म बन्धुओं, भगवान ने फरमाया जैसी संगत वैसी रंगत। जिसकी भी संगति करोगे तो उसके गुण अवगुणों का समावेश आप में अवश्य आयेंगे इसलिए ज्ञानीजन कहते है कि दोस्ती भी संस्कार गुण, देखकर, परखकर करनी चाहिए। संगति तो अपने जीवन को ऊँचा उठाने के लिए करनी चाहिए। जैसे पानी यदि शराब से मिल जाये तो शराब, परन्तु दूध के साथ मिलकर दूध कहलाता है।

वैसे ही यदि शराबी की संगति की तो व्यक्ति अपने परिवार, समाज, राष्ट्र का नाश कर देगा। क्योंकि शराब करे दिमाग को खराब। इसलिए ज्ञानीजन कहते हैं कि शराबी की संगति पापों का बन्ध करा कर दुर्गति की ओर ले जायेगा। इसलिए संगति सदैव उत्कृष्ट गुणों वाले की करनी चाहिए। सोने, चाँदी, हीरे से भी बहुमूल्य मनुष्य जीवन है। इसका मोल समझ उसे सार्थक करो। वरना एक दिन यह शरीर मिट्टी में मिल जायेगा परन्तु आत्मा तो शास्वत है। पुण्य भोगने वाला पाप कर्म का भी बन्ध करता जाता है। पूण्य क्षीण होने पर उसे पाप कर्म को भोगना पड़ता है। कर्म भोगे बिना छुटकारा नही इसलिए भगवान कहते है पुण्य भोगते हुए उसमें आसक्त मत बनो वरना पुण्य भोगते समय पाप बंध हो जायेगा और दुर्गति का द्वार खुल जायेगा पुण्य मिलने पर आरंभ सारंभ कर पाप मत बढ़ाओ। पुण्य को बचाने की कोशिश करनी चाहिए जिससे सद्गति प्राप्त हो। चक्रवर्ती सारे भोग साधन उपलब्ध होने पर भी उसे ठुकरा कर संयम धारण कर 22 परिषह सहन कर कर्म-बधन को काटते है।

ज्ञानी की संगति इस भव और आने वाले भव में भी सुख प्रदान करती है। ज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान तपते हुए रेगिस्तान में एक सुखद एहसास के समान है। ज्ञानी व्यक्ति समभाव रखते हुए तपती रेत मे यतना पूर्वक चलते हुए कर्म बंध नहीं करता। जिनवाणी श्रवण कर आपने जान लिया कि जीव अजीव किया पर यदि चिन्तन मनन नही किया तो ये ज्ञान विशिष्ट ज्ञान नही बन पायेगा इसलिए चिन्तन मनन कर ज्ञान को धारण करो। ज्ञानी जन कहते है। सांसारिक सुख स्थायी नहीं है। ससार में किसी जीव को सुख दुख प्रिय नही है। 14 राजुलोक में सर्व क्षेत्र से खुला होने के कारण कही दुख कही सुख भोग सकता है। भगवान कहते है जीव स्वयं अपने कर्मो का कर्ता भोक्ता है

जीव अपने कर्मानुसार जीव के 536 भेदो की योनियों में जन्म लेता है और कर्म भोगता है। आपके धन, भोजन, मकान आदि पूण्य के साधनो में किसी का हिस्सा हो सकता है पर आपके पाप कर्म में कोई हिस्सा नही बनकर भोगता है। नारकी के परमाधामी देवो के समान तिरछे लोक में मनुष्य एकेन्द्रिय जीवो को दुख देता है। पर मनुष्य विवेक रखे यतना रखे तो वह पाप बंध से बच सकता है। करुणा जिनवाणी से ही उत्पन्न होती है। करुणा उत्पन्न होने पर भाव परिवर्तन हो जाते है। जैन श्रावक श्राविका कम से कम पाप होने वाली आजीविका को अपना कर अपनी क्षुधा को शान्त करते है।

Share This Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

Skip to toolbar