चेन्नई. साहुकारपेट स्थित जैन भवन में विराजित साध्वी सिद्धिसुधा ने कहा भावनाओं से भव का अंत होता है। जैसी भावना होगी वैसा ही जीवन होगा। भावनाओं को भाते भाते अनंत ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है लेकिन इससे पहले स्वयं के अस्तित्व को जानना पड़ेगा। स्वयं के अस्तित्व का अवलोकन किये बिना स्व का बदलाव नहीं किया जा सकता।
मनुष्य ने स्वयं को कभी देखा नहीं इसलिए बदलाव भी नहीं हुआ। मनुष्य दूसरों को देखकर उसका मूल्यांकन करता है पर खुद का नहीं कर पाता। इसलिए जीवन बदल नहीं पा रहा है। बदलाव तभी आएगा जब वह स्वयं को जान कर मूल्यांकन करना शुरू करेगा। साध्वी सुविधि ने कहा मनुष्य जीवन मे जो भी करता है वह खुद को खत लिखने जैसा होता है।
आज अगर किसी का अपमान किया है तो यह अपने लिए बुकिंग करने जैसा है। मनुष्य स्वयं का निर्माता स्वयं ही है। जीवन में अच्छा हो या बुरा यह किसी और का दोष नहीं बल्कि स्वयं का किया हुआ परिणाम है। परिवर्तन जीवन का नियम है अगर आज अच्छा कर रहे हैं तो वह घूम फिर कर पास ही आ जाएगा।
ऐसा नहीं है कि पाप का ही फल घूम कर आता है बल्कि पुण्य के परिणाम भी खुद को ही मिलते हैं। जिस प्रकार मनुष्य कुछ सामान ऑर्डर करता है तो वह खुद के एड्रेस पर ही आता है। वैसे ही पाप पुण्य का परिणाम भी होता है। पाप करो या पुण्य, उसके उदय में थोड़ा समय जरूर लगता है पर स्वयं के पास आता जरूर है।
कोई समस्या आने पर लोग कहते हैं मेरे साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है। लेकिन ये भूल जाते हैं कि किया धरा उनका ही है बस उदय होने में थोड़ा समय लग गया। किसी के जगाने के बजाय स्वयं ही जाग जाना चाहिए। अगर किसी गलत कर्म का उदय हो जाए तो दूसरो को दोष देने के बजाय सहेजता से उसे स्वीकार करलो।
ऐसा करने से कर्मो को बंदने से रोका जा सकता है। जो इन मार्गो का अनुसरण करेंगे उनका जीवन बदल जायेगा। धर्म सभा में उपाध्यक्ष सुरेश कोठारी मंगलचंद खारीवाल, पप्पू लूपिया, मदन खाबिया, गौतमचंद दुगड़ समेत अनेक गणमान्य लोग उपस्थित थे।