नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि आत्मबन्धुओं भावी जनों के तिरने के तीर्थ का निरुपण किया है तीर्थ के चार घाट होते हैं वैसे ही जिनेश्वर भगवान नें तीर्थ के चार घाट साधु-साध्वी, श्रावक श्राविका का निरुपण किया है । ये चारो तीर्थ में जाने वाले निश्चित रूप से तिरते है यदि तीर्थ में जाने पर भी आप भव सागर से नही तिरते तो कमी स्वयं आप में है।
तीर्थकर की पहली देशना से चार तीर्थ की स्थापना करते है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी केवल ज्ञानी होने पर ही तीर्थकर प्रथम देशना देते है। तीर्थकर द्वारा दिया गया ज्ञान उनकी जिनवाणी को साधु साध्वी, आचार्य, उपाध्याय गाँव गाँव में सेल्समैन की तरह सब तक पहुंचाते है। भगवान महावीर की प्रथम देशना रात्रि में हुई जिसमें चार जाति के देव चार जाति के देवियाँ तो थे पर चार जाति के मनुष्य व तिर्यंच वहाँ उपस्थित नहीं है। मनुष्य ही व्रत प्रत्याखान धारण कर सकते है अन्य नही, इस कारण उनकी प्रथम देशना खाली गई । सम्यक्त्व धारण करने वाला श्रावक श्राविका की श्रेणी में आते हैं 24 दण्डक में नारकी को छोड़ 23 दण्डक भगवान की देशना में उपस्थित रहते है।
इसलिए भगवान महावीर की प्रथम देशना का खाली जाना इस आश्चर्यों में गिना गया दूसरी देशना मे मानस उपलब्ध थे इसलिए 5400 दीक्षा हुई व्रत प्रत्याख्यान से ही धर्म शोभित होता है। जैसे सोने का दरवाजा भी चिटकनी के बिना काम का नहीं होता है। वैसे हो व्रत प्रत्याख्यान पहले स्वयं की रक्षा करता है फिर दूसरों की रक्षा करता है। देशना सुनने वाले को ही ज्ञान होगा उसके मन में भावना जगेगी। हेय ज्ञेय को जानकर विवेक बुद्धि जागृत होने पर, मन में अनुकम्पा आने पर वह प्रत्याख्यान लेता है। अपने साथ अन्य जीवो की भी रक्षा करता है। कई बार बच्चे अपने माता पिता को जिद कर के जिनवानी सुनने ले आता है वो पिता, माता
जिनवाणी सुनकर व्रत प्रत्याख्यान धारण कर लेते है। जिनवाणी सुनकर बच्चे भी तप भी कर लेते है। तप करना चाहे तो माता पिता को बच्चों का साथ देना चाहिए जबकि आज माता पिता को डर है कि कही बच्चे जिनवाणी सुनकर हमें ही मोबाइल व टीवी के लिए टोकेंगे । इसलिए वे बच्चो को स्थानक में लाने से डरते है। जो वास्तव मे जैन है श्रावक है वह स्थानक में ही नही घर में भी जीवों की यतना करते है। घर में भी यतनापूवर्क चींटी आदि को लक्ष्मन रेखा डाल कर मारने की बजाय उन चीटियो को दूर ले जाकर छोड़ो। विवेक रखो जिससे जीवों की उत्पत्ति न हो। घर में साफ सफाई की पूजंनी हर स्थान पर होनी चाहिए पूजंनी तो धर्म का उपकरण है अनन्त जीवों को अभयदान देने वाला है।
धर्म वही वास्तव में धर्म जब हम केवल स्थानक में ही नही घर, ऑफिस, दुकान सब जगह जीवों की यतना करेगें । ज्ञानी जन छोटे- 2 व्रत जीवन में धारण करने से कितना ही पुण्य का उपार्जन करा देते हैं। थोड़ा सा प्रमाद भी कितने ही पाप का बन्ध करा देता है। असंयमी जीवन से यदि जी हटा दिया तो असंयमी वन बन जाता है। और जो मनुष्य व्रत प्रत्याख्यान नही लेता वो आदिवासी मानव की तरह होता है असंयमी जीवन का कोई नियम नहीं होता और वह जीवों के टूकड़े कर के फेंक देता है।
यदि संयम धारण कर मर्यादित नियम ले लिए तो आपका जीवन वन की बजाय उपवन के समान बन जाता है। मर्यादित व्यक्ति सीमित और आवश्यक कार्य के लिए जीवों की हिंसा करता है। अनावश्यक पाप से बच जाता है। मन में सदैव पश्चाताप रहता है और छटपटाता है कि कब मै पुर्ण हिंसा का त्याग कर मोक्ष में जाऊं।
जैन वही है जिसका आचार विचार श्रेष्ठ होता है जिसका कथनी करनी एक समान है, जो छह काय के जीवों को अभयदान देता है। पर आजकल सिर्फ नाम के आगे जैन लगाते है यदि आचरण में जैनत्व ले आये तो नाम के आगे जैन लिखने की आवश्यकता नही।
आपके आचरण को देखकर ही सब समझ जायेगें कि आप जैन हो। माता पिता को बच्चों का जीवन उपवन के समान बनाना चाहिए ना कि वन की भाँति । बच्चों को जिनवाणी श्रवण करने लाओ। उनका जीवन संयमित बनाओ। नार्थ टाउन की श्री यस यस जैन महिला मण्डल, की सदस्याएं चातुमास में सेवाएं प्रदान कर रही है