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जैन धर्म में छोटी और बड़ी सभी क्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है: जयतिलक मुनिजी

जैन धर्म में छोटी और बड़ी सभी क्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है: जयतिलक मुनिजी

यस यस जैन संघ नार्थ टाउन में चातुर्मासार्थ विराजित गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि जैन धर्म में छोटी और बड़ी सभी क्रियाओं का महत्वपूर्ण स्थान है। जितना ज्यादा आप जैन धर्म को आचरन में लाओगे उतना ज्यादा सुखी होते जाओगे । क्योंकि जैन धर्म में ही ये निर्देश दिया गया है किसी भी जीव को मन, वचन और काया से कष्ट नहीं देना। जैन धर्म कहता है कि पल पल आप दूसरों को कष्ट नहीं दो, यदि आप किसी के लिए बाधा उत्पन्न नहीं करते तो आप के जीवन में भी बाधा नही आयेगी। जैन धर्म का अनुसरण करने से आप इस भव में भी सुखी होगे और परभव में भी सुखी होगे। अन्य धर्मो में विवेक शून्यता होने के कारण पापों के त्याग का निर्देश नहीं हैं परन्तु जैन धर्म में पापो के त्याग के साथ पाप

 त्याग की विधि व प्रत्याख्यान भी बताये गये है। जैन धर्म कहता है कि संसारी जीव मर्यादा कर के कम से कम पाप करते है। जीव को बड़े पाप तो स्मृति में रहते है पर छोटे पाप नहीं । इसलिए जिनेश्वर भगवान ने सामायिक का निरुपण कर दिया जिससे जीव सामायिक में अपने प्रत्येक पाप का निरीक्षण करे और उनका त्याग करें या मर्यादा करे। प्रत्येक कार्य के लिए अभ्यास आवश्यक है ।

कहते है कि अभ्यास करने से प्राप्त ज्ञान स्थायी रूप से हमारे जीवन में टिका रहता है। अभ्यास शुरुआत में कठिन लगती है। परन्तु निरन्तर अभ्यास से वही क्रिया सरल हो जाती है सदा काल धर्म साथ में रहने से जीव की दुर्गति नही होती क्योंकि धर्म का चरम और उत्कर्ष लक्ष्य एक ही है जीव को सद्‌गति प्राप्त कराना। धर्म में कभी गुस्सा नहीं करना चाहिए, दूर जाने का सोचना भी नही जाना चाहिए। धर्म तो प्राणों से भी प्यारा होना चाहिए। इसलिए भगवान ने चारित्र निर्माण के लिए सामायिक का निरुपण किया। सामायिक से चारित्र को उत्कृष्ट बनता है। इसलिए सामायिक को शिक्षा व्रत भी कहते हैं।

शिक्षा यानि सीखना, अभ्यास करना। स्कूल में अनुशासन होता है पर सामायिक में स्वानुशासन होता है। भगवान कहते हैं कि पहले 48 मिनट तक पापों के त्याग का प्रयत्न करो । 48 मिनट अपनी इन्द्रियों को वश में करने से जीव तक अनन्त 2 कर्मो का क्षय कर लेता है। 18 पापों का प्याग करने वाला ही चारित्रवान कहलाता है। सामायिक में अपनी आत्मा को आठ-कर्म से मुक्त कराने का चिन्तन करना चाहिए । स्वयं सुखी बनना और दूसरो को सुखी बनाने का प्रयास सामायिक में किया जाता है। लौकिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आप बच्चों को 40 किमी दूर के स्कूलों में भी भेज देते है परन्तु धर्म स्थान में लाने में आप पुरुषार्थ नहीं करते है। ज्ञानचंद कोठारी ने संचालन करते हुए कहा कि रक्षाबंधन को लौकिक पर्व से आध्यात्मिक तरीके से मनाने के लिए सभी भाई बहन दिनांक 31 अगस्त गुरुवार को प्रवचन में अवश्य पधारें।

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