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जैन धर्म का अभिनव संस्करण तेरापंथ – मुनि कमलकुमारजी

जैन धर्म का अभिनव संस्करण तेरापंथ  –  मुनि कमलकुमारजी

तेरापंथ धर्मसंघ के 261वें स्थापना दिवस पर विशेष

जैन धर्म अनादिकाल से चला आ रहा है। परंतु तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना को 261 वर्ष हुए हैं। तेरापंथ धर्मसंघ के संस्थापक आचार्य भिक्षु थे। उनका जन्म राजस्थान के मारवाड़ संभाग में कांठा प्रदेश के कंटालिया नगर में पिता बल्लूशाह सकलेचा, माता दीपांबाई की कुक्षी से विक्रम संवत् 1786 आषाढ शुक्ला त्रैयोदशी मंगलवार को सिह स्वप्न से हुआ।

आपके माता-पिता स्थानकवासी संप्रदाय के साधु साध्वियों की खूब सेवा करते थे। पारिवारिक जनों में धार्मिक संस्कार गहरे और भरपूर थे, इसीलिए आपके परिवार से पड़दादा कपूरजी और चाचा पेमोजी ने दीक्षा ली और पड़दादाजी ने तपस्या संथारा करके अपना काम सिद्ध किया।

आचार्य भिक्षु ने विक्रम संवत् 1808 मे पूज्य आचार्य रघुनाथजी के पास बगड़ी नगर के गांव बाहर वट वृक्ष के नीचे विशाल जनमेदनी में दीक्षा ग्रहण की। उस समय पूज्य प्रवर ने आपको अयाचित आशीर्वाद दिया कि भीखण तेरा इस वटवृक्ष की तरह विकास हो।

भिक्षु स्वामी ने गुरु के अनमोल बोल को सफल करने के लिए अपनी सजगता, सेवा, साधना, स्वाध्याय, सहिष्णुता, सरलता क्षमता का विशेष अभ्यास प्रारंभ कर दिया। मात्र 7 वर्ष में ही आप एक साधनानिष्ठ, आचारनिष्ठ, आज्ञानिष्ठ, अनुशासननिष्ठ संत बन कर के उभरे और लोगों की आप के प्रति हार्दिक श्रद्धा वृद्धिं गोचर हो रही थी।  

उस समय साधुओं की आचार शिथिलता को लेकर राजनगर के श्रावक शंकाशील अनास्थाशील हो गए। साधुओं को वंदन भी नहीं करते, जब ये संवाद पूज्य प्रवर के पास पहुंचा, तब पूज्य प्रवर ने सोचा अगर राजनगर के श्रावकों को समय पर नहीं संभाला गया तो मेवाड़ के अन्य श्रावकों पर भी यह असर हो सकता है।

पूज्य प्रवर ने राजनगर के श्रावकों को प्रतिबोध देने के लिए अपने टोले के योग्य संत भीखणजी को राजनगर भेजने का चिंतन किया। जब भीखणजी को यह चिंतन बताया तब उन्होंने गुरु आज्ञा शिरोधार्य कर राजनगर की ओर प्रस्थान किया। राजनगर के श्रावकों को जब पता चला कि भीखणजी स्वामी हमारे यहां पधार रहे हैं तो श्रावकों की खुशी का कोई पार नहीं रहा।

उन्होंने भिक्षुस्वामी की अगवानी की। भिक्षुस्वामी के पधारते ही लोगों का दिल दिमाग बिना कोई जिज्ञासा समाधान के ही खुल गया। दर्शन प्रवचन में लोगों का तांता लग गया। भिक्षु स्वामी ने सोचा कि गुरुदेव ने फरमाया था कि वहां के लोग अनास्थाशील हो गए हैं। उन्हें धर्म में स्थिर करना है, परंतु यहां तो कोई ऐसी बात ही नहीं लगी।

एक दिन भिक्षुस्वामी ने कुछ श्रावकों से बात की और उन्हें सारी बात बताई, तब उन्होंने कहा आपका कथन सही है, यह सब भक्ति भावना आपके प्रति ही है न कि संघ के प्रति। तब पूछा क्यों? तब श्रावको ने स्पष्ट कहा कि साधुओं के आचार विचार की शिथिलता को देखकर सब के दिमाग में अश्रद्धा के भाव हैं।

आपकी तपस्या आपका आचार देखकर सभी नतमस्तक हैं। श्रावकों ने कहा आप आगम का अध्ययन करके बताएं कि हमारी शंकाएं सही है या गलत। आप के प्रति हमारा पूरा विश्वास है। भिक्षु स्वामी के मन में पहले भी कुछ शंकाएं थी। वे जब पूज्य प्रवर के चरणों में उनका समाधान मांगते तब पूज्य प्रवर टाल-मटोल कर दिया करते थे।

भिक्षु स्वामी को श्रावकों की जिज्ञासाएँ अन्यथा नहीं लगी फिर भी उन्होंने चातुर्मास में श्रावकों के निवेदन पर दो-दो बार आगम पढ़े और लगा कि आजकल हम आगम के अनुकूल नहीं चल रहे हैं। फिर भी उन्होंने सोचा यह सब जिज्ञासाएँ गुरुदेव के दर्शन करेंगे तब गुरु चरणों में निवेदन करेंगे फिर श्रावको को  बताएंगे।

भिक्षु स्वामी के मन में गुरु के प्रति अटूट श्रद्धा थी। श्रावकों के पूछने पर भी भिक्षु स्वामी ने उन्हें समुचित समाधान नहीं दिया। उसी रात भिक्षु स्वामी को तेज बुखार आ गया, उस समय भिक्षु स्वामी ने सोचा अगर मेरा आयुष्य पूरा हो गया तो सद् गति  मुश्किल है। उन्होंने संकल्प किया कि अगर रात में बुखार उतर जाए तो मैं सुबह श्रावको के सामने स्थिति स्पष्ट कर दूंगा।

संकल्प करते ही बुखार शांत हो गया। भिक्षु स्वामी ने सुबह श्रावकों को सांत्वना देते हुए फरमाया कि आपका कथन मिथ्या नहीं है परंतु आप इसका प्रचार मत करना। मैं चातुर्मास के पश्चात गुरु दर्शन कर सारी स्थिति निवेदन कर दूंगा। गुरुदेव अवश्य ही ध्यान दिलाएंगे। श्रावको को भिक्षु स्वामी से पूरा संतोष हो गया।

जब गुरुदेव के दर्शन किये, सारी स्थिति निवेदन की, परंतु उसका कोई समाधान नहीं होने से 2 वर्षों बाद विक्रम संवत् 1817 को चैत्र सुदी नवमी को आप स्थानकवासी संप्रदाय से प्रथक हो गए और शुद्ध साधना के लिए विक्रम संवत 1817 आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को नगर केलवा की अंधेरी ओरी में पुनः नई दीक्षा लेकर तेरापंथ धर्मसंघ की स्थापना की।

उन्होंने समय-समय पर मर्यादाओं का निर्माण कर संघ को उन्नत बनाया। उनके फौलादी संकल्प का ही परिणाम है कि यह संघ उत्तरोत्तर प्रवर्धमान है।

वर्तमान में इस संघ के ग्यारहवें अधिशास्ता युवामनीषी महातपस्वी आचार्य श्री महाश्रमणजी हैं। जिनकी कुशल अनुशासना में यह संघ जन-जन की आस्था का आधार बना हुआ है। 261 वें स्थापना दिवस पर आचार्य भिक्षु को शत-शत नमन।

स्वरुप चन्द दाँती
प्रचार प्रसार प्रभारी
श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी सभा, चेन्नई

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