यस यस जैन संघ नार्थ टाउन में गुरुदेव जयतिलक मुनिजी ने प्रवचन में फरमाया कि जैन धर्म एक स्वभाविक धर्म है जिसमे कोई आडम्बर नहीं है इसलिये जैन धर्म को प्राकृतिक धर्म भी कहा है इस धर्म का उदेश्य स्वयं सुख का भोग करना व दुसरों का कल्याण करना है, जो भी इस धर्म का पालन करेंगा उसका सदा मंगल ही होगा। जब तक जीव 18 पाप का त्याग नही करता तब तक धर्म की शुरूआत नही होती हैं । जैन धर्म मे सभी दुखों का निवारण हैl
इसलिये इस धर्म को आचरण में लाना होगा। चाहे दुखों का पहाड़ भी टूट जाये लेकिन जैन धर्म मे निवारण हैं । आगे बताया चाहे जीव कितना भी धर्म करें पाप कर्मो का उदय तो आता हैं। तीर्थकंर भी पाप कर्म का मन-वचन-काया से स्थिर रहकर कर्मो को भोगते है । उदय आने से सेठ का उदाहरण देते हुए बताया सेठज़ी धर्म ध्यान बहुत करते लेकीन काम – काज नहीं करते। बैठे- 2 धन भी खत्म होने लगा, सेठानी ने कहा आप मेरे पीहर जाकर आवो। पीहर यानी पीड़ा हरने वाला। पीहर यानी पराया घर, जिस घर मे रहते है या आ गये है वो घर हमारा है, अधिकार से रहते हैं ।
पीहर में तो सिर्फ अतिथी गृह होता है सेठजी जानते थे घी मे घी डालते है तो उन्होंने सोचा मौन रहना अच्छा। सेठजी ने सोचा मैं सेठानी के पीहर जाकर आ जाऊ, सेठजी ने कहा मेरे लिये भाता तैयार करना। भाता यानी जो मन को भाता है क्योंकि जैन कुल वाले शुद्ध आहार ग्रहण करते है। बाहर का भोजन नही करते हैं लेकिन आज की स्थिती ऐसी है घर में बनाते नही क्योंकि प्रमाद बहुत करते हैं और सीधा होटल से मंगवाते हैं। लेकिन जब पुण्यवानी घटती है तब बाहर का खाने की इच्छा होती हैंl ज्ञानी जन कहते है शान से रहो, शान से जीओं – क्योकि विवेक मे धर्म है।