क्रमांक – 10
. *तत्त्व – दर्शन*
*🔹 तत्त्व वर्गीकरण या तत्त्व के प्रकार*
*👉जैन दर्शन में नवतत्त्व माने गये हैं – जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष।*
*🔅 जीव तत्त्व*
*👉 जिसमें चेतना हो, सुख-दुःख का संवेदन हो उसे जीव कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में ‘जीवो उवओग लक्खणो’ कहकर इस तथ्य को अभिव्यक्त किया गया है। चेतना जीव का स्वरूप लक्षण है, आगन्तुक लक्षण नहीं, इसीलिए ‘उपयोग लक्षणो जीवः’ कहकर जीव को परिभाषित किया गया है अर्थात् जीव का लक्षण उपयोग है। जीव लक्ष्य है और उपयोग उसका लक्षण है। प्रश्न उठता है कि उपयोग क्या है? समाधान के तौर पर कहा गया है कि ‘चेतना व्यापार उपयोगः’ चेतना का व्यापार ही उपयोग है। आत्मा का बोधरूप व्यापार ही उपयोग है। बोध का कारण है – चेतनाशक्ति। जिसमें चेतना हो उसी में बोध क्रिया होती है। इस प्रकार जैन दर्शन में जीव ज्ञान-चैतन्य स्वरूप तथा सदा प्रकाशित है। ज्ञान जीव का एक विशिष्ट गुण है, जिसके कारण जीव में जानने की प्रवृत्ति होती है। द्रव्य के रूप में जीव चेतनामय अविभाज्य असंख्य-प्रदेशी पिण्ड है।*
*जैन दर्शन के अनुसार जीव स्वयं कर्त्ता, भोक्ता एवं स्वामी होता है। वह सांख्य के पुरुष (आत्मा) की तरह अकर्ता, भोक्ता नहीं है। सांख्य में पुरुष (आत्मा) कुछ करता नही है, किंतु फिर भी भोक्ता है। कर्मवाद के सिद्धान्त के अनुसार जो जैसा करता है, वैसा ही फल भोगता है। अतः जैनदर्शन जीव को कर्त्ता के साथ ही भोक्ता भी मानता है। वही अपने कर्मफलों का स्वामी भी है।*
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।