क्रमांक – 38
. *तत्त्व – दर्शन*
*🔹 तत्त्व वर्गीकरण या तत्त्व के प्रकार*
*👉जैन दर्शन में नवतत्त्व माने गये हैं – जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष।*
*🔅 आश्रव*
*👉 जैन दर्शन के अनुसार जीव और अजीव स्वतंत्र एवं निरपेक्ष हैं। इनमें सम्बन्ध स्थापित करने वाला कोई तत्त्व होना आवश्यक है। इनमें जो सम्बन्ध स्थापित कराता है, वही आस्रव है। इसलिए आस्रव को कर्मों के आने का द्वार भी कहते हैं। आश्रव जीव का परिणाम है इसलिए वह जीव है।*
*कमकिर्षणहेतुरात्मपरिणाम आश्रवः कर्म के आकर्षण के हेतुभूत आत्म परिणामों को आश्रव कहते है। जिस प्रकार तालाब में जल आने का कारण नाला है, नौका में जल प्रवेश का कारण छिद्र है और मकान में प्रवेश करने का माध्यम दरवाजा है, उसी प्रकार जीव के प्रदेशों में कर्म के आगमन का मार्ग आस्रव है। आस्रव तत्त्व को द्वार भी कहा जाता है क्योंकि इसी रास्ते से कर्म आत्मा में सहजता से प्रवेश करता है। जब तक यह दरवाजा खुला रहता है, तब तक आत्मा और शरीर का सम्बन्ध बना रहता है। आस्रव कर्मबंध का हेतु है, अतः बन्धन में सहायक और मोक्ष के लिए बाधक है और शुभ योग से निर्जरा होती है इस दृष्टि से मोक्ष में साधक भी है। आत्मा और शरीर के सम्बन्ध का मूल कारण आस्रव ही है। यह सम्बन्ध आत्मा और शरीर दोनों की तरफ से होता है।*
*भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने इसे समझाने के लिए एक सुन्दर दृष्टान्त दिया है। एक तालाव में अथाह जल भरा हुआ है। पानी के उस अथाह प्रवाह में एक व्यक्ति ने अपनी नौका खड़ी कर दी। उस नौका में सैकड़ों छेद हैं। भगवान् महावीर के अनुसार जीव एक नौका के समान है। उसके सैकड़ों छेद आस्रव हैं। पुद्गल को प्रकृति है छिद्र में भर जाना। पुद्गल सर्वत्र फैले हुए हैं और आस्रव द्वार से आत्मा में प्रविष्ट होते रहते हैं। ठाणं में इस आस्रव के पांच भेद बतलाये गये हैं – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। इन्हीं पांच आस्रवों को तत्त्वार्थसूत्र में बन्धन का कारण मानते हुए कहा गया “मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगाः बंधहेतवः”। आस्रव के मूल पांच भेद हैं और शेष पन्द्रह भेद योग आश्रव के अवान्तर भेद है ।*
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।*
विकास जैन।