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जैनो की भाषा परितकृत होती है: पुज्य जयतिलक जी म सा

जैनो की भाषा परितकृत होती है:  पुज्य जयतिलक जी म सा

पुज्य जयतिलक जी म सा ने जैन भवन, रायपुरम में प्रवचन में बताया कि भव्य जीवों को संसार सागर से तिरने के लिए प्रभु महावीर ने जिनवाणी प्ररूपित की एवं दो प्रकार के धर्म बताए ! अणगार धर्म – आगार धर्म। भाषा विवेक का निर्देश दिया। शस्त्र से भी अधिक वेदना वचन से होती है! जैनो की भाषा परितकृत होती है! सावध भाषा का निषेध करे! कार्य मुक्ति के लिए निरुध भाषा का प्रयोग करे। “पहले तोलो फिर मुँह खोलो” पानी का सूत्र H2O वाणी का सुत्र M2AM- Meditation, A- Activity

अर्थात दो बार सोचा फिर कार्य करो! किसके सामने कैसी भाषा का प्रयोग हो इसका विवेक रखो। बोलने का अभ्यास रखना चाहिए। भाषा द्वारा प्राण हनन भी हो सकता है तो किसी के प्राण बच भी सकते है। भगवान ने तीन योग बताया “मन, वचन, काया” इन तीनों से कर्म बंध होते है अत: सावधान रहो! तीर्थंकर के निहित एवं निकचित कर्म बंध नहीं होते है क्योंकि निखध भाषा बोलत बोलते हैं। व्यक्ति गुस्से में अहंकार में बोलते है तो आग के गोले निकलते है और सामने वाले को जला कर राख कर देते हैं। जैनियों के लिए मार दूं, काट दूं शब्दों का निषेध है।
जैसे पोछा लगाओ, सब्जी सुधारो ऐसे भाषा का प्रयोग करे । भाषा विवेक से कर्म बंध नहीं होता है जो भाषा विवेक रखता है वह झूठ नहीं बोलता! सत्य बोलने वालों को प्रतिक्रमण आवश्यक नहीं । जैन का चरित्र महत्वपूर्ण है! मोक्ष के लिए सत्चारित्र चाहिए। भगवान ने दो प्रकार के धर्म बताए सुत्रधर्म, चारित्र धर्म! चारित्र के दो भेद- आगार धर्म – आशिंक रुप से पालन करने वाला धर्म, अणगार धर्म- पूर्ण रूप से चारित्र पालन करना!

जो दृढ़ता से चारित्र पालन करता है वह मन वचन काया को वश में रखता। मन से काया चंचल कम है! ज्यादा से ज्यादा काया को स्थिर रखो। जो काया को वश में काया कर लेता है वह बत्तीस दोष रहित सामायिक कर सकता है। काया को वश में करने से “कायकलेश” तप की श्रेणी में आता है! भगवान ऋषभ देव के पुत्र बाहुबली जी’ ने एक वर्ष तक काया को स्थिर रखा ! सर्दी गर्मी परिषह आदि को समभाव से सहा। काया के कर्म को क्षीण कर सकते हैं। काया के बाद वचन को वश में करो। काया और वचन को वश करना सरल है किंतु इनके अवश से जो कर्म बंधन होते है वे निष्ठुर होते है! उन्हे भोगना कठिन है। काया से कर्म अर्जुनमाली, गजसुकुमाल को 99 लाख वर्ष भोगना पड़ा। अर्जुनमाली को छह मास तितिक्षा भाव रखा ! समभाव से सहे तो कर्म क्षय अन्यथा फिर के कर्म बंध हो जाते है। आज के युग में भी काय स्थिर हो सकती है जैसे V.G.P में खड़ा वह पुरुष जो अकाम निर्जरा करता है। भरण पोषण करता है। किंतु आप जैन धर्म को समझतें है। तो काय स्थिर कर सकाम निर्जरा कर सकते है। वाणी को संयम में रखो। भगवान ने क्लेशकारी, खेदकारी, छेदकारी भाषा का वर्णन किया। दूसरे अणुव्रत में सहकाब्धयखाने अतिचार सहसा किसी पर कलंक लगाना !

सती अंजना, सती सीता, सती सुभद्रा इन सब महासतियों को वचन के कारण कितने कष्ट सहन करना पड़ा। किंतु धर्म पर आडिग रहे तो देव भी धर्म सहायक बने! सती सुभद्रा के शील प्रभाव से देव ने चंपानगरी के परकोटे बंद कर दिये ! देव ने वाणी की अगर कोई सती स्त्री कच्चे सूत्र से चालनी में जल भर कर छीटे मारे तो द्वार खुल सकते है अन्यथा नहीं! सती सुभद्रा ने अपनी सासु माँ से से आज्ञा माँगी ! क्रोध में आज्ञा दी किंतु सती सुभद्रा समभाव सहन कर द्वार खोलने जाती है। मायाकारी, क्लेशकारी, छेदकारी, भेदकारी भाषा न बोल! चिन्तन करो, मनन करो, सदचर्चा करो आपके जीवन में परिवर्तन आएगा! जैनो के आचार विचार पर धर्म टिका है।

पंच परमेष्टी का शरण, श्रध्दा उसके हृदय में बसी थी! नवकार मंत्र का स्मरण कर कच्चे सूत्र से चालनी में पानी लाकर परकोटे पर छाँटे ! द्वार खुल गये! पति एंव सास ने क्षमायाचना की ! चारित्र को शुद्ध रखने के लिए ही व्रत है!
“रहसब्यखाणे’ दूसरा अतिचार ! यदि किसी का रहस्य पता हो तो वह नहीं खोलना चाहिए! आज के व्यक्ति के आचार और विचार दोनो ही बिगड गये है। कुल के विपरीत प्रवृत्ति का कोई आचरण नहीं करना ! बेटी और बहु को कैसे रखना चाहिए यह कर्तव्य माता पिता का है। ऊँचे कुल में जन्म लेने के बाद चारित्रवान धर्म को प्राप्त करने के बाद नीच आचरण करे तो कर्म बंध होता है। काम रोग उत्पन्न होता है! अतः अपने आचार विचार को शुद्ध रखो ! घर में सत्य शील का आचरण हो। जिससे घर एवं धर्म दोनो की महिमा बनी रहे! कार्य बंधन भी नहीं होंगे। एवं एक दिन मोक्ष मार्ग पर अग्रसर हो सकेंगे! संचालन नरेन्द्र मरलेचा ने किया। यह जानकारी अशोक खटोड ने दी ।

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