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जैनत्व के संस्कारों को सुरक्षित रखने के लिए खानपान की शुद्धि बनाये रखे: जिनमणिप्रभसूरीश्वर म.

जैनत्व के संस्कारों को सुरक्षित रखने के लिए खानपान की शुद्धि बनाये रखे: जिनमणिप्रभसूरीश्वर म.

गच्छाधिपति ने भगवान महावीर के पुण्यकाल, परिषह काल और परोपकार काल का किया चित्रण

Sagevaani.com @चेन्नई ; श्री मुनिसुव्रत जिनकुशल जैन ट्रस्ट के तत्वावधान में श्री सुधर्मा वाटिका, गौतम किरण परिसर, वेपेरी में शासनोत्कर्ष वर्षावास में पर्यूषण महापर्व के छठे दिन धर्मपरिषद् को सम्बोधित करते हुए गच्छाधिपति आचार्य भगवंत जिनमणिप्रभसूरीश्वर म. ने कहा कि बच्चों की पढ़ाई के साथ संस्कारों का बीजारोपण भी जरूर हो। जैसे मन्दिर, पौषधशाला, उपासरा, स्थानक भवन जरूरी हैं। उससे भी जरुरी है संस्कारों को देने वाले विद्यालय, गुरुकुल। उन विद्यालयों में व्यवहारिक शिक्षा के साथ संस्कार युक्त धार्मिक शिक्षा भी बच्चों को मिलती रहे, जीवन जीने की कला सीख सके।

◆ बड़ों के प्रति रहे विनम्र

गुरुवर ने प्रेरणा देते हुए कहा कि हमारे जैनत्व के संस्कारों को सुरक्षित रखने के अपने खानपान की शुद्धि बनाये रखना जरूरी है। बच्चों के साथ स्वयं भी बाहर का खाना नहीं खाना चाहिए। वर्तमान में कई जगह अण्डों को शाकाहारी मानते है और उनसे बनी हुई चाकलेट, अन्य चीजों को नहीं खाना चाहिए।

भगवान महावीर का जीवन प्रसंग प्रस्तुत करते हुए शिक्षा दी कि तीन ज्ञान के धनी होते हुए भी महावीर दीक्षा की अनुमति अपने बड़े भाई नंदीवर्धन से लेते है। यह छोटो का बड़ों के प्रति कर्तव्य भाव हमारे जीवन में भी प्रतिबिंबित हो। हम नम्र, विनम्र बने। वर्धमान महावीर का जीवन यही कहता है कि हम चाहे पैसों से, पद इत्यादि से कितने भी बड़े बन जाये पर हमें अपने से बड़े भाई-बहन, माता-पिता का हमेशा सम्मान करना चाहिए। साधु जीवन में भी यह भाव रहना चाहिए। जन्म कल्याणक मनाते हुए जैसे सौधर्मेन्द्र अपने आप को आल्हादित महसुस करता है, हम भी यह भावना भाये कि तीर्थंकर के सान्निध्य में रह कर, साधना आराधना कर परमात्म पद को प्राप्त करें।

◆ भगवान महावीर के जीवनी को सुन श्रावक समाज हुए आनन्दित, प्रसन्नचित

गच्छाधिपति की ओजस्वी वाणी में भगवान महावीर के जन्मकल्याणक से दीक्षा, केवलज्ञान, निर्माण तक का मनमोहक जीवन को सुन श्रावक समाज अपने आप को चौथे आरे में महसुस करने लगें। भगवान महावीर के पुण्यकाल जन्म से तीस वर्ष तक का, परिषहकाल – साधना के साढ़े बारह वर्ष, परोपकारकाल- केवलज्ञान बाद के समय का चित्रण ऐसा दर्शा रहा था कि जैसे हमारे सामने छलचित्र की भांति चल रहा था।

गुरु भगवंत ने कहा कि हम जैनी द्रव्य से अपनी किसी भी परम्परा, चाहे श्वेताम्बर- दिगम्बर, मूर्ति पूजक, स्थानकवासी या तेरापंथी परम्परा को माने, लेकिन हमारी भावधारा सदैव एक रहे। हम महावीर के सिद्धांतों पर चलते रहे। परिवार में जैसे सभी सदस्य अलग-अलग होते है, पर कहलाते सभी एक परिवार के सदस्य हैं। बाहरी रुप में, सरकारी रुप में हम एक बने रहे।

समाचार सम्प्रेषक : स्वरूप चन्द दाँती

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