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जुगुप्सा अर्थात तीव्र घृणा

जुगुप्सा अर्थात तीव्र घृणा

कषाय के सोलह भेद हैं; (1) प्रबलतम क्रोध, (2) प्रबलतम मान, (3) प्रबलतम माया (कपट), (4) प्रबलतम लोभ, (5) अति क्रोध, (6) अति मान, (7) अति माया (कपट), (8) अति लोभ, (9) साधारण क्रोध, (10) साधारण मान, (11) साधारण माया (कपट), (12) साधारण लोभ, (13) अल्प क्रोध, (14) अल्प मान, (15) अल्प माया (कपट) और (16) अल्प लोभ।

*उपर्युक्त कषायों को उत्तेजित करने वाली नौ मनोवृत्तियों (उपकषाय) है -* (1) हास्य, (2) रति (स्नेह, राग), (3) अरति (द्वेष), (4) शोक, (5) भय, (6) जुगुप्सा (घृणा), (7) स्त्रीवेद , (8) पुरुषवेद , (9) नपुंसकवेद ।

छट्ठा उपकषाय जुगुप्सा हैं। जुगुप्सा अर्थात तीव्र घृणा। जुगुप्सा को रानी दुर्गंधा के कथानक से समझा जा सकता हैं।

*रानी दुर्गंधा*

एकबार प्रभु महावीरस्वामी विचरण करते हुए राजगृही पधारे। प्रभुकी दिव्य देशना सुनने, चरम तीर्थंकर के पावन दर्शन करने, वंदनकर शीघ्र कर्म निर्जरा करने हेतु नगरजनो का आवागमन होने लगा। राजा श्रेणिकभी दर्शन करने निकले।

मार्ग में एक जगह अत्यंत तीव्र बदबू का एहसास हुआ। श्रेणिकने सैनिकों को उस असह्य दुर्गंध का कारण तलाश करने भेजा।

सैनिकों ने आकर बताया कि वहां वृक्ष के नीचे एक नवजात यानी तुरन्त की जन्मी हुई बालिका मिली है। उसके शरीर से तीव्र दुर्गंध फैल रही है। राजा श्रेणिकने अशुचि भावना का चिंतन कर माध्यस्थ भाव रखा।

प्रभुके दर्शन वंदन व देशना श्रवण बाद श्रेणिकने प्रभु से उस बालिका विषयक जिज्ञासा रखी। किस कर्मोदय से उस बालिका के देह में से इतनी असह्य दुर्गंध फैल रही थी?

तब प्रभु ने बताया कि यह बालिका पूर्वभव में एक धनाढ्य सेठ की धनश्री नामक रूपवान पुत्री थी। जब उसके भवन में उसके विवाह की तैयारी चल रही थी। तब एक निर्ग्रन्थ मुनि पधारे। पिता ने भाव से धनश्री को मुनि को प्राशुक आहार पानी वहोराने की आज्ञा दी। सदा सुगंधीद्रव्यों से लिप्त रहनेवाली धनश्री जब आहार वहोराने मुनि के समीप आई, तब उत्कृष्ट संयमपालक, मुनि के वस्त्रों में उसे दुर्गंध का अनुभव हुआ। तब उसके मन में तीव्र अरुचि का भाव उठा। संसार में सभी धर्मो में श्रेष्ठ है जिनधर्म। परन्तु इसमे नियमित स्नान व वस्त्र प्रक्षालन की अनुमति क्यों नही दी गई। ऐसे सोचते हुए उसने तीव्र जुगुप्सा से कर्म बंधन कर लिया। अपने पाप की आलोचना किये बिना आयु पूरी कर वह इस नगर की वैश्या के यहां उत्पन्न हुई। उस वैश्या ने गर्भ गिराने का बहुत प्रयास किया मगर वह असफल रही। जब तीव्र वेदना से उसका जन्म हुआ तब वैश्या ने तुरन्त उसे फिंकवा दिया।

 हे श्रेणिक , तुमने जो देखी वह बालिका ने निर्ग्रंथो के संयम से अरुचि की, तो बुरा परिणाम भोग रही है।

मार्ग पर देखी बालिका का भविष्य के बारे में पूछने पर प्रभुने राजा को कहा : – राजन, वह बालिका किशोरवय में ही तुम्हारी पट्टरानी बनेगी। और तुम पर सवारी भी करेगी।

एक दुर्गंधमय बालिका मेरी भविष्य की पट्टरानी? और वह मुझ पर सवारी करेगी?

राजा को आश्चर्य हुआ। पर फिर कुछ दिनों में वह बात सब भूल गये।

उस बालिका को एक अहीर की (एक भरवाड़ जैसी कोम)निसंतान स्त्री ले गई। उसका पालनपोषण करने लगी। अशुभ कर्म धीरे-धीरे क्षीण होते-होते नष्ट हो गया, कुछ ही वर्षों में वह बालिका रूप-लावण्य युक्त अनुपम सुंदरी बन गई ।

किशोरावस्था में ही उसके अंग विकसित हो गये और वह युवती दिखने लगी।

एक बार कौमुदी महोत्सव में श्रेणिकराजा ने उसे देखा। राजा उस पर मोहित हो गये। अभयकुमार की मदद लेकर राजा ने उसके साथ विवाह कर लिया। कुछ ही समय में वह राजा की प्रिय पटरानियों में एक बन गई।

एकबार राजा रानियों के साथ कोई खेल खेल रहे थे। उसमें एक शर्त थी, जो जीतेगा वह हारने वाले की पीठ पर सवारी करेगा।

खेल में हार-जीत सबकी होती रहती है। कभी कोई रानी जीतती तब वह राजा की पीठ पर अपना पल्लू रख देती और शर्त पूरी हुई मान लेती। मर्यादा युक्त वे राजा की पीठ पर सवारी नही करती। पर जब दुर्गंधा जीती तब उसने सच में स्वयं श्रेणिकराजा की पीठ पर चढ़कर सवारी की। राजा को तब वीरप्रभु की वाणी याद आई। उनके मुंह से निकल गया : – “आखिर है तो वैश्या पुत्री ही !”

रानी ने कहा : – मैं तो अहिरकन्या हूं। वैश्यापुत्री क्यों कहा?

राजा से जब दुर्गंधा ने सारा सत्य जाना , पूर्वजन्म, सन्तो से जुगुप्सा, अपनी विडंबना आदि का वर्णन सुना तब संसार से उसे विरक्ति हो गई। कुछ ही समय में उसने श्रेणिकराजाकी आज्ञा लेकर वीरप्रभु से संयम अंगीकार कर आत्मकल्याण किया।

*-पूज्या गुरूवर्या श्री कमलेशजी म सा*

14.8.2022 धारावी प्रवचन सारांश

✍🏻 प्रदीप चौपड़ा जैन

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